हाेना तो यह चाहिए कि सहाफत ग़ैर जानिब दाराना हाे।
इसी में सहाफत का वक़ार क़ायम रह सकता है।
पर पिछले कई महीनों के ग़ाैर व फिक्र और तजुर्बात के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि उर्दू सहाफत पर खास साेच हावी हाेती जा रही है और वह अपने मखसूस दिमाग से पूरे समाज में एक खास साेच व फिक्र पैदा करनी चाहती है।
बहुत से अखबारात और उनमें काम करने वाले बहुत से लोग इसमें मुलवविस हैं
फिलहाल उर्दू के मशहूर अखबार "राेज़नामा इंक़लाब " का ज़िक्र करना वक्त की ज़रूरत बन गया है।
अखबार के ऐडिटर शकील हसन शमसी साहब का क़लम इसी रासते पर चल निकला है, माेक़ा बा माेक़ा वह अपना एक खास पैग़ाम पहुचाते रहते हैं।
हालात पर नज़र रखने वाले और इंटरनैशनल पोलीस काे समझने वाले और अरब देशों में ईरान के किरदार की हकीकत जानने वाले अक्सर अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उनकी तहरीरें ईरान नवाज़ी और सऊदी अरबिया मुखालिफ रुख लिए हाेती हैं।
चलिए वह ऐडिटर हैं किसी हद तक उनकी इस रविश काे अनदेखा व अनपढ़ा भी किया जा सकता है। पर एक हद तक।
आपको अगर एहसास ना हाे ताे एक मरतबा फिर बस इंक़लाब के पिछले 6-7 महीने के शुमारे उठाएँ और पढ़ डालें, लखनऊ के इमाम बाडाें के साथ ईरान के किरदार व उसकी तारीफें मिलेंगी।
यहां तक सही है।
पर अगर वह शिया सुननी इखतिलाफ खतम करने का तज़किरा करते हैं तो कहीं ना कहीं सऊदी अरबिया हुकूमत व अरब देशों की पालिसी, उनके किरदार, उनके क्लचर पर उंगलियां उठाते रहते हैं।
कमियां और खामियां हर जगह हैं पर ईरान काे हीरो बना कर पैश करना, मस्जिद अक़सा का हक़ीक़ी पासदार ज़ाहिर करना असल सूरतेहाल से धाेके में रखना है।
सीरिया में चार पांच साल से चल रहे खून खराबे में अगर ईरान की हमनवाई ना हाे तो लाखों इंसानाें का क़ातिल और साबिक़ यहूदी वज़ीर आज़म शेरून के रिशते दार बशारुल असद एक दिन हुकूमत के तख्त पर ना रहे।
यमन में हाेसियाें काे ईरान की मदद ना मिलती ताे हलात यह नहीं हाेते, ईराक़ में ईरान इंटरफेयर ना करता ताे आईएसआईएस ना पनपती।
यह ईरान ही की दाेग़ली पाेलीसयां ही हैं कि आज पूरा आलमे इस्लाम इंतिशार वह बद अमनी का शिकार है।
लाखों इंसान क़तल हाे चुके हैं।
पूरी दुनिया में मस्जिद अक़सा के नाम पर परचम बुलंद कर के दाेग़ली पाेलीसयाें पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।
दुनिया देख चुकी है कि दहशत गरदी कहाँ पनप रही है, किसकी ज़बान क्या कहती है और किसकी परदे के पीछे की यहूदियाना दाेसतियां क्या कहती हैं।
यह ताे माेजूदा हालात हैं, पिछली एक सदी और 1400 साल क्या कहते हैं वह भी दिल खराश कहानी है।
फिलहाल शकील हसन शमसी साहब से
सिर्फ यह कहना है कि खुदारा दियानत से काम लें और अपने आेहदे का बेजा इस्तेमाल ना करें, एक खास ज़हनियत काे परवान ना चढ़ाएं।
20 नवंबर 2015 से 24 नवंबर 2015 तक जनाब शकील हसन शमसी साहब का शाय हाेने वाला क़िसतवार मज़मून "दहशत गरदी है क्या बला? "पढ़कर बहुत अफसोस हुआ।
महसूस हुआ कि वह इसकाे सुननी दहशत गरदी का नाम देने से मजबूर हैं, अगर उनकाे माेक़ा मिल जाए ताे वह यह कारनामा भी अंजाम दे दें।
काेई उनसे बताएं, जनाब!
आपमे और इस्लाम दुश्मनों में क्या फर्क रह गया?
उन्होंने जिसकाे जाे नाम दिया, जिस पर जाे लेबल लगा दिया आपने उसकाे हवाला बना लिया, आप पूरे मज़मून में इस्लाम का दिफा भी करते रहे और मुसलमानों को दहशत गरदी में घसीटते भी रहे।
अगर आप सही तजज़िया करें हकीकत कुछ और ही आशकारा हाे।
हाँ! एक काम आपने पूरे मज़मून में बडा शानदार किया।
लेबनान में माेजूद शिया तंज़ीम हिज्बुल अल्लाह काे बडी चालाकी से बचा भी लिया, उस पर दहशत गरदी के लेबल की तरदीद भी करली, उसकाे और ईरान काे इज़राइल और आईएसआईएस के मुक़ाबले आलमे इस्लाम का हीराे भी बना दिया।
खुदारा चिकनी चिपडी बाताें के खाेल में ईरान नवाज़ी यहूद हमनवाई का अपना असली चेहरा मत दिखाएँ।
सहाफत काे ग़ैर जानिबदार रखें, और अगर हक़ बात कहने से आपका ईमान आपकाे राेकता है तो खामोश रहें।
शजर है फिरक़ा आराई, ताअससुब है समर उसका
यह वह फल है कि जननत से निकलवाता है आदम काे
और
ज़माना अपने हवादिस झुपा नहीं सकता
तेरा हिजाब है क़लबाे नज़र की नापाकी
शुक्रिया
ना मालूम
24-नवंबर 2015
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