Thursday 7 April 2016

दारुल क़ज़ा मोजुदा दौर की सबसे एहम ज़रूरत

मुफ़्ती उसामा इदरीस नदवी

ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तत्वधान से आयोजित तीन दिवसीय तरबीयत ऐ क़ज़ा सेमिनार में शिरकत हुई । दारुल क़ज़ा इस वक़्त की बड़ी अहम ज़रूरत बन चुकी है। अगर इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ हम अपने फैसले कराएंगे तो अल्लाह भी हम से खुश होगा। और दारुल क़ज़ा में आजकी अदालत की तरह सालो साल मुक़दमें नही चलते बल्कि जल्द से जल्द सुलह या फैसला कर दिया जाता है। जिससे वादी और प्रतिवादी का समय बचता है ।

निकाह, तलाक़, मेहर, विरासत आदि के मुक़दमात अगर सरकारी अदालत में जाते हैं तो वहाँ पर वो ही सब कुछ खिलवाड़ होता है जो शाहबानो के साथ हुआ था और जो कुछ नईमा के साथ हुआ था। मैं पूरे यक़ीन के साथ विधी का छात्र होने के नाते ये बात कह सकता हूँ. इस्लामी क़ानून और इस्लामी मसाईल जो आज अदालत में जिन पर फैसला किया जता हे या वकीलों ने पढ़े हुए हैं उनमें बहुत सी गलतियाँ हैं जिनकी तरफ आज तक हमारे उलेमा की तवज्जुह नही गई है ।

एक दिन क्लास में टीचर पढ़ा रहे थे और वे इस्लामिक विवाह यानी निकाह का कॉन्सेप्ट बता रहे थे जो बिलकुल गलत था मैंने उनको टोका और उन्हें सही बताया तो उन्होंने कहा में ये सब्जेक्ट 7 साल से पढ़ा रहा हूँ और ये ही बात सात साल से दोहरा रहा हूँ लेकिन किसी ने ऐतराज़ नही किया तुम Islamic Law के नाम से पुस्तकालय में किताब देखना उसमें भी ये ही लिखा हुआ हे ,मैने उनको बताया सर में मुफ़्ती हूँ और  अल्लाह ने मुझे इस बारे में ज्ञान दिया हे जो बात में बता रहा हूँ वो सही हे ।

उसके बाद में पुस्तकालय गया किताब देखी गुरु जी की बताई हुई बात सही निकली  तो अब में समझा जब किताबों में गलत अनुवाद करके शरीयत को गलत ब्यान करदिया गया हे तो वकील साहब कोर्ट में गलत कियूँ नही बोलेंगे । दारुल क़ज़ा में फैसला कराने पर अल्लाह की जानिब से बरकत और खेर का मामला होता है ।

अफ़सोस की मुसलमान अपने घर की इज़्ज़त को लेकर सरकारी अदालतों में चक्कर काटते हैं और वक़्त और पैसा बर्बाद करते हैं । चाहिए अपने मुक़दमो को इस्लामी अदालत में ले जाएँ और शरीयत के मुताबिक़ फैसला कराएँ ।

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