Thursday, 28 December 2017

हंगामा है क्यों बरपा ?

तलाक़, तलाक़, तलाक़
**तलाक़ ए बिदअत**
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दोस्तों ,
लोकसभा में आज मुस्लिम महिला बिल 2017 पारित हो गया । सेक्शन 2 से 7 तक जो इस बिल का हिस्सा हैं, उन को आप फोटो 1 में पढ़ सकते हैं और इस बिल के ऑब्जेक्ट्स एंड रीज़न्स भी आप फोटो नंबर 2 में पढ़ सकते हैं ।
इस बिल को लाने के उद्देश्य और कारणों में बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने "तीन तलाक़"को बिदअत करार दिया है और पर्सनल लॉ बोर्ड की कोशिशों और भरोसा दिलाये जाने के बाद भी यह नहीं रुका है , इसलिये कानून बनाये जाने की ज़रुरत है ।
दोस्तों,
इस बिल के सेक्शन 2 को पढ़ें जिस में "तलाक़ "को परिभाषित किया गया है । इस के अनुसार तलाक़ ए बिदअत को अवैध करार दिया गया है यानि वही जिस को सुप्रीम कोर्ट ने तलाक़ ए बिदअत कहा है यानि एक ही वक़्त में तीन तलाक़ कह देना ।
ऐसा बिल में नहीं लिखा है कि किसी भी वैध तरीके से दिया जाने वाला तलाक़  भी अवैध होगा या कि मुसलमानों को अब तलाक़ देने के लिए उसी कानून का पालन करना होगा जो संसद ने हिंदुओं के लिये बना रखा है ।
इस बिल में वैध रूप से तीन हैज़ के तीन माह  की अवधि के पूरा होने पर जो तलाक़ हर माह दिए जाने का प्रावधान क़ुरान पाक़ में दिया गया है , उस को रद्द नहीं किया गया है ।
इस लिये जो आपत्ति है वह सिर्फ 3 साल की सज़ा के प्रावधान पर ही की जानी चाहिए ।
इस के लिये निम्न आधारों पर सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिये
1. सजा के प्रावधान की आवश्यकता नहीं है और न ही ये अपराध की श्रेणी में आता है क्यों कि इस तरह दिया गया 3 तलाक़ जब गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है तो विवाह नहीं टूटता और पति पत्नी पूर्व वत रह सकते हैं। इस लिए ये कानून औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध Reasonable Restriction नहीं होता बल्कि इसका विपरीत असर होगा और पत्नियां इस का दुरूपयोग कर सकतीं हैं और साथ रहने से इंकार इस झूठ आधार पर कर सकती हैं कि पति रखने को तैयार नहीं है।
इसका दुरुपयोग उसी तरह हो सकता है जिस तरह दहेज़ कानून और घरेलु हिंसा कानून का हुआ है ।
असल में सब कुछ मानवीय व्यवहार पर निर्भर है । किसी भी कुरुति को ख़त्म होना चाहिये और कानून का दुरूपयोग भी नहीं होना चाहिये। लेकिंन इस तरह सज़ा औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध नहीं है और किसी व्यक्ति को बिना अपराध 3 वर्ष कारागार में डाल रहा है। ये ऐसा अपराध घोषित किया गया है कि जिस कि कल्पना जुरिस्प्रूडेंस में नहीं की गयी। अपराध का मतलब है जो किसी को हर्ट यानि चोट और क्षति पहुंचाने वाला काम हो । शादी एक सिविल रिलेशन है । कल कोई कहेगा कि किसी भी तरह का तलाक़ या विवाह का ख़त्म करना कानूनी अपराध होना चाहिए यानि तलाक़ होगा ही नहीं ,  न हिदुओं में और न मुस्लिम में ।
ये अजीब स्थिति है कि एक तरफ विवाह को समाप्त हुआ भी नहीं माना जा रहा और दूसरी तरफ उस के टूटने की सजा भी 3 साल सुनाई जा रही है । अपराध शास्त्र में अपराध उस काम को माना जाता है जिस से किसी को क्षति यानि हर्ट हो । तो ये क्षति किस को हुई ? यानि पत्नी अगर उसे माफ़ कर दे या करना चाहे या उसे क्षति ही न माने तो उस दशा  में क्या होगा? ऐसी कोई व्यवस्था इस कानून में नहीं है इसलिए ये जुरिस्प्रूडेंस का अनूठा कानून है जो मोदी जी के नवरत्न कानून मंत्री जी की देन है जो कहना चाह रहे हैं कि विवाह तोड़ने का प्रयास भी अपराध होगा । इस तरह जो हिन्दू पति या पत्नी तलाक़ अदालत से नहीं ले पाते और अदालत इंकार कर देती है तो उनके लिये भी सज़ा का प्रावधान होना चाहिये
आखिर ये अपराध है किस के विरुद्ध ? पत्नी या समाज या राज्य , किसके विरुद्ध है? इस कानून से देश केसभी नागरिकों के बीच ""कानून के  समक्ष समानता """ नहीं रखी । विवाह तोड़ने का प्रयास यदि ग़लत तरीके से (जिस को कानून अवैध) कह रहा है तो वह अपराध होगा और दूसरी तरफ हिन्दू या कोई अन्य अगर अदालत से तलाक न ले सके तो वह अपराध नहीं होगा ये ग़लत वर्गीकरण  है और इस से कानून के समक्ष समानता खत्म होती है जब की संविधान का आर्टिकल 14 इस को मूल अधिकार बता कर इस की गारंटी देता है ।इस लिये ये  कानून संविधान विरोधी है । क्या कोई हिन्दू स्त्री अपने पति को ऐसे तथाकथित अपराध की सजा दिला सकती है ?
पर्सनल बोर्ड भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इस हद तक मान चुका है कि एक ही वक़्त में एक साथ 3 बार तलाक़ देना बिदअत  है ।
याद रहे कि भारत का संविधान उन प्रथाओं , रिवाज़ों, चलन को इज़ाज़त नहीं देता जो मूल अधिकारों के विरुद्ध हैं जब तक कि वे धर्म के आवश्यक अंग न हों । इस तरह से एक ही वक़्त में एक साथ 3 तलाक़ देना इस्लाम धर्म का आवश्यक अंग नहीं है ।
सती प्रथा, बाल विवाह, लड़कियों की हत्या और विधवा स्त्री के अधिकारों का हनन भी इसी आधार पर गैर कानूनी करार दिए गए क्यों कि वे हिन्दू धर्म/संस्कृति के आवश्यक अंग नहीं थे बल्कि कुरुति थीं जो मूल और मानवाधिकार का हनन करतीं थीं ।
इस बिल के सेक्शन 3, और 4 में सजा का प्रावधान जिस तलाक़ के लिए किया गया है वह वही तलाक़ है जो सेक्शन 2 में और ऑब्जेक्ट्स एंड रीजन्स में कहा गया है।
सेक्शन 2
2.  In this  Act, unless the context otherwise requires,—
(a) "electronic form" shall have the same meaning as assigned to it in clause (r) of sub-section (1) of section 2 of the Information  Technology  Act, 2000;
(b) "talaq" means  talaq-e-biddat  or any other similar form of  talaq  having the effect of instantaneous and irrevocable divorce pronounced by a muslim husband and
(c) "Magistrate" means a Magistrate of the First Class exercising jurisdiction under the Code of Criminal Procedure, 1973, in the area where a married Muslim woman resides.
Section 3 to 7
CHAPTER II
DECLARATION  OF  TALAQ  TO  BE  VOID  AND  ILLEGAL
3. Any pronouncement of  talaq  by a person upon his wife, by words, either spoken or written or in electronic form or in any other manner whatsoever, shall be  void  and illegal.
4. Whoever pronounces  talaq  referred to in section 3 upon his wife shall be punished with imprisonment for a term which may extend to three years and fine.
CHAPTER III
PROTECTION  OF  RIGHTS  OF  MARRIED  MUSLIM  WOMEN
5. Without prejudice to the generality of the provisions contained in any other law for the time being in force, a married Muslim woman upon whom  talaq  is pronounced, shall be entitled to receive from her husband such amount of subsistence allowance for her and dependent children as may be determined by the Magistrate.
6. Notwithstanding anything contained in any other law for the time being in force, a married Muslim woman shall be entitled to custody of her minor children in the event of pronouncement of  talaq  by her husband, in such manner as may be determined by the Magistrate.
7. Notwithstanding anything contained in the Code of Criminal Procedure, 1973, an offence punishable under this  Act shall be cognizable and non-bailable within the meaning of the said Code.
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