लोगों ने ये ग़लत धारणा बना रखी है कि भारत में सिर्फ मुसलमान ही हैं जो गोमांस खाते हैं. यह बिल्कुल ही निराधार सोच है क्योंकि इसका कोई भी ऐतिहासिक आधार नहीं है. वैदिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर में भी गोमांस का सेवन किया जाता था. जब यज्ञ होता था तब भी गोवंश की बलि दी जाती थी. उस वक़्त यह भी रिवाज था कि अगर मेहमान आ जाए या कोई ख़ास व्यक्ति आ जाए तो उसके स्वागत में गाय की बलि दी जाती थी. शादी के अनुष्ठान में या फिर गृह प्रवेश के समय भी गोमांस खाने-खिलाने का चलन आम हुआ करता था. ये गुप्तकाल से पहले की बात है.
गोहत्या पर कभी प्रतिबंध नहीं रहा है लेकिन पांचवीं सदी से छठी शताब्दी के आस-पास छोटे-छोटे राज्य बनने लगे और भूमि दान देने का चलन शुरू हुआ.
इसी वजह से खेती के लिए जानवरों का महत्व बढ़ता गया. ख़ासकर गाय का महत्व भी बढ़ा. उसके बाद धर्मशास्त्रों में ज़िक्र आने लगा कि गाय को नहीं मारना चाहिए. धीरे-धीरे गाय को न मारना एक विचारधारा बन गई, ब्राह्मणों की विचारधारा. साथ ही एक दूसरी चीज़ भी होती रही. पांचवीं-छठी शताब्दी तक दलितों की संख्या भी काफ़ी बढ़ गई थी. उस वक़्त ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों में यह भी लिखना शुरू किया कि जो गोमांस खाएगा वो दलित है. उसी दौरान सज़ा का भी प्रावधान किया गया, यानी जिसने गोहत्या की उसे प्रायश्चित करना पड़ेगा. फिर भी ऐसा क़ायदा नहीं था कि गोहत्या करने वाले की जान ली जाए, जैसा आज कुछ लोग कह कर रहे हैं. लेकिन गोहत्या को ब्रह्म हत्या की श्रेणी में रखा गया. इसके बावजूद भी इसके लिए किसी कड़ी सज़ा का प्रावधान नहीं किया गया. सज़ा के तौर सिर्फ इतना तय किया गया कि गोहत्या करने वाले को ब्राह्मणों को भोजन खिलाना पड़ेगा. धर्मशास्त्रों में यह कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इस पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया. हाँ, अलबत्ता इतना ज़रूर हुआ मुग़ल बादशाहों के दौर में कि राज दरबार में जैनियों का प्रवेश था, इसलिए कुछ ख़ास ख़ास मौक़ों पर गोहत्या पर पाबंदी रही.
सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया. और इसके बाद ही ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो 'बीफ़' बेचता और खाता है वो मुसलमान है. इसी के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी होने शुरू हो गए. उससे पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे. वैसे गोवंश की एक पूजा होती है जिसका नाम 'गोपाष्टमी' है. इसके अलावा गाय के लिए अलग से कोई मंदिर नहीं होते. कहीं किसी ने मंदिर बना लिए हों तो अलग बात है. मंदिर तो फ़िल्मी सितारों के भी बनाए गए हैं.
मूल सवाल यह है कि राज्य यानी सरकार खाने पर अपना क़ानून चला सकती है या नहीं?
जब आप यह कहते हैं कि देश के बहुसंख्यकों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए बीफ पर प्रतिबंध लगाना चाहिए तो आप इन्हीं में से एक वर्ग की भावनाओं को ठेस भी पहुंचा रहे हैं. वहीं एक दूसरे वर्ग के खान-पान पर आप अतिक्रमण भी कर रहे हैं. देश में दलित बीफ़ खाते हैं और खुलेआम खाते हैं, आदिवासी खाते हैं. दक्षिण भारतीय राज्य केरल में ब्राह्मणों को छोड़कर बाक़ी सब खाते हैं. तमिलनाडु में भी एक बड़ा वर्ग है जो बीफ़ खाता है. ऐसा लगता है कि यह सरकार सिर्फ अंधविश्वास पर चल रही है.
गोहत्या पर कभी प्रतिबंध नहीं रहा है लेकिन पांचवीं सदी से छठी शताब्दी के आस-पास छोटे-छोटे राज्य बनने लगे और भूमि दान देने का चलन शुरू हुआ.
इसी वजह से खेती के लिए जानवरों का महत्व बढ़ता गया. ख़ासकर गाय का महत्व भी बढ़ा. उसके बाद धर्मशास्त्रों में ज़िक्र आने लगा कि गाय को नहीं मारना चाहिए. धीरे-धीरे गाय को न मारना एक विचारधारा बन गई, ब्राह्मणों की विचारधारा. साथ ही एक दूसरी चीज़ भी होती रही. पांचवीं-छठी शताब्दी तक दलितों की संख्या भी काफ़ी बढ़ गई थी. उस वक़्त ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों में यह भी लिखना शुरू किया कि जो गोमांस खाएगा वो दलित है. उसी दौरान सज़ा का भी प्रावधान किया गया, यानी जिसने गोहत्या की उसे प्रायश्चित करना पड़ेगा. फिर भी ऐसा क़ायदा नहीं था कि गोहत्या करने वाले की जान ली जाए, जैसा आज कुछ लोग कह कर रहे हैं. लेकिन गोहत्या को ब्रह्म हत्या की श्रेणी में रखा गया. इसके बावजूद भी इसके लिए किसी कड़ी सज़ा का प्रावधान नहीं किया गया. सज़ा के तौर सिर्फ इतना तय किया गया कि गोहत्या करने वाले को ब्राह्मणों को भोजन खिलाना पड़ेगा. धर्मशास्त्रों में यह कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इस पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया. हाँ, अलबत्ता इतना ज़रूर हुआ मुग़ल बादशाहों के दौर में कि राज दरबार में जैनियों का प्रवेश था, इसलिए कुछ ख़ास ख़ास मौक़ों पर गोहत्या पर पाबंदी रही.
सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया. और इसके बाद ही ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो 'बीफ़' बेचता और खाता है वो मुसलमान है. इसी के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी होने शुरू हो गए. उससे पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे. वैसे गोवंश की एक पूजा होती है जिसका नाम 'गोपाष्टमी' है. इसके अलावा गाय के लिए अलग से कोई मंदिर नहीं होते. कहीं किसी ने मंदिर बना लिए हों तो अलग बात है. मंदिर तो फ़िल्मी सितारों के भी बनाए गए हैं.
मूल सवाल यह है कि राज्य यानी सरकार खाने पर अपना क़ानून चला सकती है या नहीं?
जब आप यह कहते हैं कि देश के बहुसंख्यकों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए बीफ पर प्रतिबंध लगाना चाहिए तो आप इन्हीं में से एक वर्ग की भावनाओं को ठेस भी पहुंचा रहे हैं. वहीं एक दूसरे वर्ग के खान-पान पर आप अतिक्रमण भी कर रहे हैं. देश में दलित बीफ़ खाते हैं और खुलेआम खाते हैं, आदिवासी खाते हैं. दक्षिण भारतीय राज्य केरल में ब्राह्मणों को छोड़कर बाक़ी सब खाते हैं. तमिलनाडु में भी एक बड़ा वर्ग है जो बीफ़ खाता है. ऐसा लगता है कि यह सरकार सिर्फ अंधविश्वास पर चल रही है.
-डीएन झा
सुप्रसिद्ध इतिहासकार
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सुप्रसिद्ध इतिहासकार
बीफ़ बैनः हज़ारों के रोज़गार पर संकट
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महाराष्ट्र सरकार के गोवंश हत्याबंदी क़ानून के लागू होने के बाद इस व्यापार से जुड़े हज़ारों लोगों के रोज़गार पर संकट आ गया है.
इनमें बीफ के व्यंजन बेचने वाले होटल, रेस्तरां, चमड़े की वस्तुओं के व्यापारी और कुरैशी समाज के करोड़ों लोग हैं- जो बैल काटने का काम करते हैं.
पढ़िए पूरी कहानी
मुंबई के धारावी इलाके में चमड़े का व्यापार बड़े पैमाने पर होता है. यहां शुद्ध चमड़े से बनी बेल्ट, लेडीज़ बैग, पर्स जैसी अन्य चीज़ें मिलती हैं.
धारावी में चमड़े की वस्तुओं का व्यापार करने वाले असलम शेख (बदला हुआ नाम) कहते हैं, "हमारे बाज़ार की ज्यादातर चीज़ें बैल के चमड़े से बनती हैं. इस कानून के लागू हो जाने के बाद हमारा सारा व्यापार ही बंद हो जाएगा."
धारावी के चमड़ा व्यापारियों को डर है कि इस कानून के लागू होने के बाद उनके लिए भुखमरी की नौबत आ जाएगी.
नाम न बताने की शर्त पर एक व्यापारी ने कहा, "हम कई पुश्तों से यह व्यापार कर रहे हैं. अब अचानक यह काम छोड़ कर हम दूसरा काम भी शुरू नहीं कर सकते. हमारा जमा जमाया व्यापार मिट्टी में मिल जाएगा और हम सड़क पर आ जाएंगे."
मुंबई सबर्बन बीफ ट्रेडर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष मोहम्मद अली कुरैशी के मुताबिक कोलकाता और चेन्नई के चमड़े के कारखानों को जानवरों की खाल की आपूर्ति मुंबई और महाराष्ट्र से होती है.
वह बताते हैं कि देवनार बूचड़खाने से एक दिन में करीब 450 खालें इन शहरों में भेजी जाती है. एक खाल की कीमत करीब 1,500 रुपए होती है.
चूंकि अब महाराष्ट्र में बैल काटने पर पाबंदी लगी है, यह कीमत अब 2,000 से भी ज्यादा होगी.
कुरैशी कहते हैं, "अब इस चमड़े की कीमत में इजाफ़े की वजह से यहां व्यापार पर बुरा असर पड़ेगा. देवनार बूचड़खाने में साल भर में करीब 24 करोड़ रुपये की खाल का व्यापार होता है. अब यह सब बंद हो जाएगा."
विदेशी पर्यटक
कुरैशी के अनुसार सिर्फ मुंबई में हर रोज़ करीब 30 लाख रुपए के बैल के मांस की बिक्री होती है.
वह कहते हैं, "देवनार बूचड़खाने में कटने वाले 450 जानवरों के अलावा इतने ही जानवर ग़ैरकानूनी तरीके से कट कर रोज़ मुंबई में आते हैं, जिनका मांस शहर के हर उस होटल में जाता है जहां बीफ़ खाने लोग आते हैं."
"कुल मिलाकर चमड़े और मांस का सालाना 1.5 अरब रुपये का व्यापार अब ठप हो जाएगा. होटलों के अलावा बैल का मांस मुंबई के भायखला ज़ू और संजय गांधी नेशनल पार्क के टाइगर और लॉयन सफारी में जानवरों को खिलने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था."
कुरैशी कहते हैं, "एक बैल के मांस की औसत कीमत तीन हज़ार रुपए होती है. मुंबई शहर में और आस-पास के इलाकों में एक दिन में औसत एक हज़ार बैल काटे जाते हैं जिनका सारा मांस मुंबई के अलग अलग होटलों में भेजा जाता है."
"चूंकि यूरोप तथा अमरीका में बीफ़ मटन और चिकन के मुकाबले महंगा है और भारत में सस्ता है इसलिए मुंबई आने वाले लगभग सारे विदेशी पर्यटक बीफ खाना पसंद करते है."
गोवंश हत्याबंदी कानून से मुंबई के होटल तथा रेस्तरां मालिकों में खासी नाराज़गी है, खासकर वे जो बीफ से बने पदार्थों के लिए जाने जाते हैं.
मुंबई के कोलाबा इलाके में इस तरह के कई होटल तथा रेस्तरां हैं. इन्ही में से एक है कैफ़े मोंड़ेगर.
बीफ के पदार्थों के चाहनेवालों में यह रेस्तरां काफी पसंदीदा है. लेकिन गोवंश हत्याबंदी काननों के चलते यहां अब बीफ के पदार्थ न बनेंगे और न ही बिकेंगे.
इस रेस्तरां के व्यवस्थापक जोसफ मकाड़ो के मुताबिक, इस कानून के बाद उनके रेस्तरां का करीब 30 से 40% व्यवसाय ख़त्म हो जाएगा. यही नहीं बीफ का व्यापार भी करीब 70% तक कम हो जाएगा.
जीने मरने का सवाल
बीफ व्यापारी संगठन के अध्यक्ष मोहम्मद अली कुरैशी के अनुसार, इस कानून की वजह से भैंस के मांस तथा चिकन और मटन की कीमतों में इज़ाफ़ा होगा.
जोसफ मकाड़ो ने कहा, "बीफ हमारे यूरोपीय तथा प्रवासी भारतीय ग्राहकों की पहली पसंद है. हम सभी लोगों की धार्मिक भावानाओं का सम्मान करते हैं और किसी को कोई ठेस नहीं पहुंचाना चाहते. लेकिन जो लोग बीफ़ खाना चाहते हैं उन्हें उससे वंचित रखना ठीक नहीं होगा."
इसी तरह कोलाबा इलाके में दूसरे और भी होटल तथा रेस्तरां है जो बीफ के लिए जाने जाते हैं.
ऐसे ही एक रेस्तरां के शेफ ने नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर कहा, "यह कानून हमें बुरी तरह से आहत करेगा. मेरी तो शायद नौकरी भी न रहे. अगर बीफ के पदार्थ नहीं बनेंगे तो मैं करूंगा क्या? मेरे हाथ के बने बीफ स्ट्रीक और बीफ बर्गर लोग काफी पसंद करते हैं."
महाराष्ट्र में करीब डेढ़ करोड़ कुरैशी समाज के लोग हैं जो कसाई का काम करते हैं.
यह इस समाज का पुश्तैनी काम है, कुरैशी कहते हैं, "यह समाज कम पढ़ा-लिखा है और बेहद ग़रीब है. ये लोग जानवर काटने के अलावा कोई भी काम नहीं कर सकते. गोवंश हत्याबंदी कानून के बाद रातों-रात इनकी रोज़ी रोटी छिन गई है."
"व्यापारी तो किसी तरह दूसरे किसी काम से अपना गुज़ारा कर लेंगे. लेकिन कुरैशी समाज के करोड़ों लोग जो इसी पर निर्भर हैं उनके लिए जीने मरने का प्रश्न है."
10 राज्यों में क़ानूनन होती है गो-हत्या
भारत के 29 में से 10 राज्य ऐसे हैं जहां गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस को काटने और उनका गोश्त खाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है. बाक़ि 18 राज्यों में गो-हत्या पर पूरी या आंशिक रोक है.
भारत की 80 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी हिंदू है जिनमें ज़्यादातर लोग गाय को पूजते हैं. लेकिन ये भी सच है कि दुनियाभर में ‘बीफ़’ का सबसे ज़्यादा निर्यातकरनेवाले देशों में से एक भारत है.
दरअसल ‘बीफ़’, बकरे, मुर्ग़े और मछली के गोश्त से सस्ता होता है. इसी वजह से ये ग़रीब तबक़ों में रोज़ के भोजन का हिस्सा है, ख़ास तौर पर कई मुस्लिम, ईसाई, दलित और आदिवासी जनजातियों के बीच.
इसी महीने हरियाणा और महाराष्ट्र के गो-हत्या विरोधी क़ानून कड़े करने पर ‘बीफ़’ पर बहस फिर गरमा गई. यहां तक की भारत में ‘बैन’ की संस्कृति पर कई पैरोडी गाने भी बनाए गए.
इसीलिए बीबीसी हिन्दी ‘बीफ़’ की ख़रीद-फ़रोख़्त के अर्थव्यवस्था पर असर, उसके स्वास्थ्य से जुड़े फ़ायदे, गो-हत्या पर रोक की मांग करनेवालों की राय, रोक पर राजनीति और उसके इतिहास पर विशेष रिपोर्ट्स लेकर आ रहा है.
गो-हत्या पर कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है पर अलग राज्यों में अलग-अलग स्तर की रोक दशकों से लागू है. तो सबसे पहले ये जान लें कि देश के किन हिस्सों में ‘बीफ़’ परोसा जा सकता है.
पूरा प्रतिबंध
गो-हत्या पर पूरे प्रतिबंध के मायने हैं कि गाय, बछड़ा, बैल और सांड की हत्या पर रोक.
ये रोक 11 राज्यों – भारत प्रशासित कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महराष्ट्र, छत्तीसगढ़, और दो केन्द्र प्रशासित राज्यों - दिल्ली, चंडीगढ़ में लागू है.
गो-हत्या क़ानून के उल्लंघन पर सबसे कड़ी सज़ा भी इन्हीं राज्यों में तय की गई है. हरियाणा में सबसे ज़्यादा एक लाख रुपए का जुर्माना और 10 साल की जेल की सज़ा का प्रावधान है.
वहीं महाराष्ट्र में गो-हत्या पर 10,000 रुपए का जुर्माना और पांच साल की जेल की सज़ा है.
हालांकि छत्तीसगढ़ के अलावा इन सभी राज्यों में भैंस के काटे जाने पर कोई रोक नहीं है.
आंशिक प्रतिबंध
गो-हत्या पर पूरे प्रतिबंध के मायने हैं कि गाय और बछड़े की हत्या पर पूरा प्रतिबंध लेकिन बैल, सांड और भैंस को काटने और खाने की इजाज़त है.
इसके लिए ज़रूरी है कि पशू को ‘फ़िट फ़ॉर स्लॉटर सर्टिफ़िकेट’ मिला हो. सर्टिफ़िकेट पशु की उम्र, काम करने की क्षमता और बच्चे पैदा करने की क्षमता देखकर दिया जाता है.
इन सभी राज्यों में सज़ा और जुर्माने पर रुख़ भी कुछ नरम है. जेल की सज़ा छह महीने से दो साल के बीच है जबकि जुर्माने की अधितकम रक़म सिर्फ़ 1,000 रुपए है.
आंशिक प्रतिबंध आठ राज्यों – बिहार, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा और चार केंद्र शासित राज्यों – दमन और दीव, दादर और नागर हवेली, पांडिचेरी, अंडमान ओर निकोबार द्वीप समूह में लागू है.
कोई प्रतिबंध नहीं
दस राज्यों - केरल, पश्चिम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और एक केंद्र शासित राज्य लक्षद्वीप में गो-हत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है.
यहां गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस का मांस खुले तौर पर बाज़ार में बिकता है और खाया जाता है.
आठ राज्यों और लक्षद्वीप में तो गो-हत्या पर किसी तरह को कोई क़ानून ही नहीं है. असम और पश्चिम बंगाल में जो क़ानून है उसके तहत उन्हीं पशुओं को काटा जा सकता है जिन्हें ‘फ़िट फॉर स्लॉटर सर्टिफ़िकेट’ मिला हो.
ये उन्हीं पशुओं को दिया जा सकता है जिनकी उम्र 14 साल से ज़्यादा हो, या जो प्रजनन या काम करने के क़ाबिल ना रहे हों.
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक़ इनमें से कई राज्यों में आदिवासी जनजातियों की तादाद 80 प्रतिशत से भी ज़्यादा है. इनमें से कई प्रदेशों में ईसाई धर्म मानने वालों की संख्या भी अधिक है.
साभार : बीबीसी
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