ABP न्यूज ने प्राचीन भारत में गोमांस भक्षण पर प्रतिक्रिया लेने में बड़ा उत्साह दिखाया किन्तु उसे प्रसारित करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये क्यों ?
कल जैसे ही पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री रघुवंश प्रसाद जी का बयान आया कि प्राचीन काल में ऋषि मुनि भी गोमांस खाते थे वैसे ही मीडिया में संघ-भाजपा नेताओं की तीखी प्रतिक्रियाएं आने लगीं. टीवी चेनल वालों ने वास्तविक तथ्यों के पड़ताल के क्रम में इतिहासकारों से भी उनकी प्रतिक्रियाएं लेना शुरू किया. ABP न्यूज के प्रसारण स्टूडियो ने दोपहर के समाचार प्रसारण के समय फोन पर मेरी भी प्रतिक्रिया ली थी और उसका प्रसारण किया था. उसके कुछ क्षणों बाद मुझे दीपक चौरसिया ने फोन किया और कहा मुझे प्राचीन भारत में गोमांस भक्षण पर आपकी बाईट लेनी है आप कब और कहाँ मिलेंगे. मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि वह बनारस में हैं. मैंने उन्हें तीन बजे अपने विभाग में मिलने का समय दिया. तीन बजने के पहले फिर दीपक चौरसिया ने फोन कर बताया कि कुछ क्षणों में आपके पास हमारे फोटोग्राफर पहुँच रहे हैं. ABP न्यूज के रिपोर्टर मेरे विभाग आये और प्राचीन भारत में गोमांस भक्षण पर लगभग १० मिनट का इंटरव्यू लेकर गये किन्तु वे इसे प्रसारित करने की हिम्मत नहीं जुटा सके. आखिर क्या था जिसे प्रसारित नहीं किया जा सकता था ?
ABP न्यूज रिपोर्टर को दी गयी अपनी प्रतिक्रिया में मैंने ऐतिहासिक तथ्यों का उद्धरण देते हुए कहा था की प्राचीन काल में गोमांस भक्षण आम बात थी और इतना ही नहीं गोमांस को सर्वोत्तम भोजन माना जाता था. इसके उदाहरण
ऋग्वेद, यजुर्वेद से लेकर अनेक ब्राह्मण ग्रंथों, सूत्र-ग्रंथों, महाकाव्यों, स्मृति ग्रंथों आदि में भरे पड़े हैं. मैंने बताया था कि ऋग्वेद के दसवें मंडल में इंद्र के लिए १५ बैलों का मांस पकाये जाने और अग्नि देवता के लिए बैल, बाँझ गाय, सांड, भेड़ आदि जानवरों की बलि दिए जाने का विवरण है.
वाजसनेयी संहिता में गोमांस खाये जाने का जिक्र है. ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण में भी इन पशुओं की बलि और उनके मांस खाए जाने का विवरण है.
तैत्तरीय ब्राह्मण के अनुसार यज्ञ में विष्णु को नादिया बैल, इंद्र को कृष बैल और रूद्र को लाल गौ की बलि दिए जाने का उल्लेख है.
आपस्तम्ब धर्मसूत्र में कहा गया है कि ‘गाय और बैल पवित्र है, इसलिए खाये जाने योग्य है. महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार गो के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति हो जाती है तथा वन पर्व के अनुसार राजा रंतिदेव की रसोई में प्रतिदिन दो हजार गायें काटी जाति थीं. मनु ने भी गाय, भेड़, बकरी और मृग आदि को भक्ष्य योग्य पशु माना है. मनु ने कहा है की मांस भक्षण, मद्यपान एवं मैथुन में दोष नहीं है.
संवाददाता के यह पूछे जाने पर कि गाय की महत्ता कब और क्यों बढ़ी मैंने बताया कि दूध देनेवाली गाय का महत्त्व पहले से था और छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कृषि के विस्तार तथा बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार के कारण गाय का महत्व बढ़ा. गाय से दुग्ध-उत्पाद की प्राप्ति के साथ ही उससे उत्पन्न बछड़ो/बैलों का कृषि के लिए उपयोग बढ़ गया. इसके आलावा भगवान बुद्ध ने बलि के नाम पर गाय के साथ ही किसी भी प्रकार के पशुओं की हत्या न किये जाने की पुरजोर वकालत की. बाद में सम्राट अशोक महान ने भी अपने राजकीय भोजनालय में सैकड़ों की संख्या में काटे जानेवाले पशुओं पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया जिसका अनुकरण परवर्ती राजाओं द्वारा भी किया जाता रहा.
एक अन्य सवाल के प्रति उत्तर में मैंने कहा था कि ऐसा नहीं है प्राचीन भारत में लोगों ने पूरी तरह मांस खाना छोड़ दिया अथवा पशु बलि पूरी तरह ख़त्म हो गयी. किसी न किसी रूप में भारतीय समाज में यह प्रथा आज भी जीवित है और आज भी हिन्दू देवी-देवताओं को प्रसन्न करने और उनसे अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के निमित्त विभिन्न अवसरों पर अन्यान्य पशुओं की बलि दी जाती है. हिन्दुओं द्वारा गोमांस अथवा मांस भक्षण करना कोई नयी बात नहीं है किन्तु भावनाओं से जुड़ा होने के कारण हम आज इसे सार्वजानिक रूप से स्वीकार करने में संकोच करते हैं.
NBP न्यूज के संवाददाता ने एक सवाल यह भी पूछा था कि गाय में ३३ करोड़ देवताओं का निवास होता है, मैंने उन्हें बताया वैदिक और वैदिकोत्तर काल में भी गाय को सिर्फ एक जानवर माना जाता रहा. ३३ करोड़ देवताओं की परिकल्पना और उनका गाय में वास पौराणिक कल्पना है जिसका कोई आधार नहीं है.
ऊपर दिए वक्तव्य में कोई भी एसी बात नहीं थी जो तथ्यपरक न हो फिर भी ABP न्यूज चेनल कल रात्रि १० बजे प्रसारित किये गये आधे घंटे के अपने कार्यक्रम- “गाय हमारी माता है” में मेरी नाममात्र की प्रतिक्रिया भी नहीं दिखा सका यद्यपि उन्होंने लगभग १० मिनट का साक्षात्कार लिया था.ऐसा लगता कि मेरे कक्ष और मेरी टेबल में रखी भगवान बुद्ध और बाबा साहब की मूर्तियों और तस्वीरों ने उनके कान खड़े कर दिए हों और उन्हें किसी गलत जगह पर आ जाने का अहसास हो गया हो ! क्या यही है भारतीय मिडिया का स्वतन्त्र, निष्पक्ष और तथ्यान्वेषी चरित्र ?
प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार
प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग,
काशीहिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
कल जैसे ही पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री रघुवंश प्रसाद जी का बयान आया कि प्राचीन काल में ऋषि मुनि भी गोमांस खाते थे वैसे ही मीडिया में संघ-भाजपा नेताओं की तीखी प्रतिक्रियाएं आने लगीं. टीवी चेनल वालों ने वास्तविक तथ्यों के पड़ताल के क्रम में इतिहासकारों से भी उनकी प्रतिक्रियाएं लेना शुरू किया. ABP न्यूज के प्रसारण स्टूडियो ने दोपहर के समाचार प्रसारण के समय फोन पर मेरी भी प्रतिक्रिया ली थी और उसका प्रसारण किया था. उसके कुछ क्षणों बाद मुझे दीपक चौरसिया ने फोन किया और कहा मुझे प्राचीन भारत में गोमांस भक्षण पर आपकी बाईट लेनी है आप कब और कहाँ मिलेंगे. मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि वह बनारस में हैं. मैंने उन्हें तीन बजे अपने विभाग में मिलने का समय दिया. तीन बजने के पहले फिर दीपक चौरसिया ने फोन कर बताया कि कुछ क्षणों में आपके पास हमारे फोटोग्राफर पहुँच रहे हैं. ABP न्यूज के रिपोर्टर मेरे विभाग आये और प्राचीन भारत में गोमांस भक्षण पर लगभग १० मिनट का इंटरव्यू लेकर गये किन्तु वे इसे प्रसारित करने की हिम्मत नहीं जुटा सके. आखिर क्या था जिसे प्रसारित नहीं किया जा सकता था ?
ABP न्यूज रिपोर्टर को दी गयी अपनी प्रतिक्रिया में मैंने ऐतिहासिक तथ्यों का उद्धरण देते हुए कहा था की प्राचीन काल में गोमांस भक्षण आम बात थी और इतना ही नहीं गोमांस को सर्वोत्तम भोजन माना जाता था. इसके उदाहरण
ऋग्वेद, यजुर्वेद से लेकर अनेक ब्राह्मण ग्रंथों, सूत्र-ग्रंथों, महाकाव्यों, स्मृति ग्रंथों आदि में भरे पड़े हैं. मैंने बताया था कि ऋग्वेद के दसवें मंडल में इंद्र के लिए १५ बैलों का मांस पकाये जाने और अग्नि देवता के लिए बैल, बाँझ गाय, सांड, भेड़ आदि जानवरों की बलि दिए जाने का विवरण है.
वाजसनेयी संहिता में गोमांस खाये जाने का जिक्र है. ऐतरेय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण में भी इन पशुओं की बलि और उनके मांस खाए जाने का विवरण है.
तैत्तरीय ब्राह्मण के अनुसार यज्ञ में विष्णु को नादिया बैल, इंद्र को कृष बैल और रूद्र को लाल गौ की बलि दिए जाने का उल्लेख है.
आपस्तम्ब धर्मसूत्र में कहा गया है कि ‘गाय और बैल पवित्र है, इसलिए खाये जाने योग्य है. महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार गो के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति हो जाती है तथा वन पर्व के अनुसार राजा रंतिदेव की रसोई में प्रतिदिन दो हजार गायें काटी जाति थीं. मनु ने भी गाय, भेड़, बकरी और मृग आदि को भक्ष्य योग्य पशु माना है. मनु ने कहा है की मांस भक्षण, मद्यपान एवं मैथुन में दोष नहीं है.
संवाददाता के यह पूछे जाने पर कि गाय की महत्ता कब और क्यों बढ़ी मैंने बताया कि दूध देनेवाली गाय का महत्त्व पहले से था और छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कृषि के विस्तार तथा बौद्ध मत के प्रचार-प्रसार के कारण गाय का महत्व बढ़ा. गाय से दुग्ध-उत्पाद की प्राप्ति के साथ ही उससे उत्पन्न बछड़ो/बैलों का कृषि के लिए उपयोग बढ़ गया. इसके आलावा भगवान बुद्ध ने बलि के नाम पर गाय के साथ ही किसी भी प्रकार के पशुओं की हत्या न किये जाने की पुरजोर वकालत की. बाद में सम्राट अशोक महान ने भी अपने राजकीय भोजनालय में सैकड़ों की संख्या में काटे जानेवाले पशुओं पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया जिसका अनुकरण परवर्ती राजाओं द्वारा भी किया जाता रहा.
एक अन्य सवाल के प्रति उत्तर में मैंने कहा था कि ऐसा नहीं है प्राचीन भारत में लोगों ने पूरी तरह मांस खाना छोड़ दिया अथवा पशु बलि पूरी तरह ख़त्म हो गयी. किसी न किसी रूप में भारतीय समाज में यह प्रथा आज भी जीवित है और आज भी हिन्दू देवी-देवताओं को प्रसन्न करने और उनसे अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के निमित्त विभिन्न अवसरों पर अन्यान्य पशुओं की बलि दी जाती है. हिन्दुओं द्वारा गोमांस अथवा मांस भक्षण करना कोई नयी बात नहीं है किन्तु भावनाओं से जुड़ा होने के कारण हम आज इसे सार्वजानिक रूप से स्वीकार करने में संकोच करते हैं.
NBP न्यूज के संवाददाता ने एक सवाल यह भी पूछा था कि गाय में ३३ करोड़ देवताओं का निवास होता है, मैंने उन्हें बताया वैदिक और वैदिकोत्तर काल में भी गाय को सिर्फ एक जानवर माना जाता रहा. ३३ करोड़ देवताओं की परिकल्पना और उनका गाय में वास पौराणिक कल्पना है जिसका कोई आधार नहीं है.
ऊपर दिए वक्तव्य में कोई भी एसी बात नहीं थी जो तथ्यपरक न हो फिर भी ABP न्यूज चेनल कल रात्रि १० बजे प्रसारित किये गये आधे घंटे के अपने कार्यक्रम- “गाय हमारी माता है” में मेरी नाममात्र की प्रतिक्रिया भी नहीं दिखा सका यद्यपि उन्होंने लगभग १० मिनट का साक्षात्कार लिया था.ऐसा लगता कि मेरे कक्ष और मेरी टेबल में रखी भगवान बुद्ध और बाबा साहब की मूर्तियों और तस्वीरों ने उनके कान खड़े कर दिए हों और उन्हें किसी गलत जगह पर आ जाने का अहसास हो गया हो ! क्या यही है भारतीय मिडिया का स्वतन्त्र, निष्पक्ष और तथ्यान्वेषी चरित्र ?
प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार
प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग,
काशीहिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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