राजनीति का एक तरीक़ा ये भी है कि जब अपने पास कुछ बढ़िया बताने के लिए न हो तो कुछ ऐसे मुद्दे उछाल दो, जो लोगों का ध्यान भटका दें. ये मुद्दे ऐसे होने चाहिए जो क़लम घिसने वालों, कलाकारों और सड़कों पर उतरकर नारे लगाने वालों को उलझा सकें. देश को फ़िलहाल, ऐसे ‘जाँबाज’ मुद्दे मिल गये हैं. महँगाई, ‘सबका साथ, सबका विकास’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्वच्छ भारत’, ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्ज़िमम गर्वनेंस’ और ‘स्किल इंडिया’ के अलावा न जाने कितने शानदार और ज़बरदस्त मुद्दे और नारे इन दिनों नेपथ्य में चले गये हैं.
‘तथाकथित’ बुद्धिजीवीयों, ‘छद्म’ धर्मनिरपेक्षतावादियों और ‘भ्रष्ट’ राष्ट्र-भक्तों और क़ौम के गद्दारों ने कुछ दिनों से गोमांस, सम्मान वापसी और कालिख पोतने को नाहक़ ही देश का मुख्य मुद्दा बना दिया है. ये ‘शर्मनाक’ है कि मुट्ठीभर लोगों का वाला ये तबक़ा देश को बड़े और बुनियादी मुद्दों से भटका रहा है. मानों, देश के लिए यही चिन्ता और परेशानी का सबसे बड़ा विषय हो.
ज़रा सोचिए, इससे किसको फ़ायदा हो रहा है? और कैसे? जबाव है - सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता पक्ष को. केवल बीजेपी और उसके संघ परिवार को. क्योंकि बिहार में चुनाव है. विकास के मुद्दों से ज़्यादा जातिवादी चिन्तन और व्यवहार हावी है. हालाँकि, इसके बावजूद वहाँ भगवा लहराने की मज़बूत सम्भावनाएँ दिख रही हैं. इन मुद्दों के गरमाने से महँगाई का दर्द किसी को नहीं हो रहा. दाल और प्याज़ अपना खेल दिखाते ही जा रहे हैं. लेकिन लोग शैतान और ब्रह्म-पिशाच में उलझे पड़े हैं. सभी नेताओं और पार्टियों का चुनावी रथ तेज़ी से आगे बढ़ रहा है. कोई स्पीड-ब्रेकर भी रास्ते में नहीं है, जो रफ़्तार पर अंकुश लगाये. प्रधानमंत्री मोदी रोज़ाना घंटों भाषण देकर बिहार को जगा रहे हैं. वो जाग गया, तब बाक़ी मुद्दों के बारे में सोचा जाएगा. उन्हें भी दुरुस्त किया जाएगा. हमेशा ऐसा ही होता है. आग लगी होने पर लोग पहले उसे बुझाने की सोचते हैं कि भूख-प्यास, रोज़गार-व्यापार की बातें की जाती हैं?
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लोगों को समझाया कि भारत की ताक़त ही उसकी विविधता और सहिष्णुता (Tolerance) में है. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि प्रणब बाबू सही कह रहे हैं. लोग समझें. आपस में लड़ना चाहते हैं या विकास. अब लाल कृष्ण आडवाणी भी आहत हैं. सुधीन्द्र कुलकर्णी के साथ जो हुआ, उससे आहत तो होना ही पड़ेगा. कितना मन को मारें. अख़लाक़ के बाद भी तो बोला था कि समाज में सहिष्णुता का बढ़ना ठीक नहीं है. यशवन्त सिन्हा से भी नहीं रहा गया. कह ही दिया, ‘हमारे जैसे लोकतंत्र में ऐसी घटनाओं के लिए कोई जगह नहीं है.’
सिन्हा साहब ने तो अभी 1 अक्टूबर को ही अपने एक लेख में लिखा, ‘अभी तक देश ने आर्थिक क्षेत्र में जो कुछ हासिल किया है उसके पीछे मुख्य रूप से देश की पूँजी, घरेलू माँग तथा हमारे मेहनतकशों का श्रम रहा है. यही आगे भी होगा. विदेशी पूँजी और विदेशी ज्ञान का सीमित स्थान अवश्य है. लेकिन उसी को केन्द्र बिन्दु मान लेना भूल होगी.’ तब मोदी अमेरिका दौरे पर थे और भारत में भारी विदेशी निवेश करने का न्यौता अमेरिका की ऐसी कम्पनियों को दे रहे थे, जिनमें से कईयों का कमाई भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) से भी ज़्यादा है.
हर बात पर मोदी सरकार का पुरज़ोर बचाव करने वाले अल्पसंख्यक कार्य मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी के भी सब्र का बाँध टूट गया. अब वो भी मन-मसोस रहे हैं. कहते हैं, ‘ऐसे हमले करने वाले ख़ुद को संविधान से ऊपर समझते हैं. भूल जाते हैं कि सहिष्णुता हमारी सबसे बड़ी ताक़त रही है. मतभेदों का होना स्वाभाविक है. लेकिन ये तरीक़े सही नहीं हैं. इससे हमारी लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रतिष्ठा तबाह हो जाएगी. ऐसे असहिष्णु बर्ताव, तालिबानी मानसिकता की प्रतीक हैं. इसकी भर्त्सना होनी चाहिए.’ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस को चिन्ता होने लगी कि मोदी जो विदेशी निवेश लेकर आये हैं, वो ऐसी घटनाओं से दरवाज़े तक आकर देश के अन्दर आने से ठिठक जाएगी. सुधीन्द्र ने तय किया कि ‘कालिख़’ को दुनिया देखे और जाने कि आज भारत कैसा हो चला है?
लेकिन मोदी भक्तों का दावा है कि ये सारे लोग ग़लत हैं. ऐसी छिटपुट घटनाएँ होती रहती हैं. इनका कहना है कि मीडिया आज जब अख़लाक़ के बारे में लिखता-बोलता है कि तो क्यों भूल जाता है कि कश्मीरी पंडितों के साथ क्या हुआ? चौरासी के दंगों में क्या हुआ? भागलपुर में क्या हुआ? मलियाना में क्या हुआ? अयोध्या में, गोधरा में और न जाने कहाँ-कहाँ जो हुआ उसे पहले लिखिए, अभी लिखिए और फिर ये ग़म मनाइए कि अख़लाक़ के साथ क्या हुआ, क्यों हुआ? इसी तरह साहित्यकारों के घड़ियाली आँसुओं पर मत जाइए. पहले तय कीजिए कि उनका सम्मान लौटाना सही है या नहीं? वो सम्मान की राशि और शिक्षा की अपनी डिग्रियाँ भी लौटा रहे हैं या नहीं? उन्होंने पहले हुई बर्बर और शर्मनाक घटनाओं पर सम्मान क्यों नहीं लौटाये? अभी कोई पहली बार देश में सहिष्णुता की बलि चढ़ रही है? पहले जब ऐसा होता था तो उनके अन्तःकरण ने उन्हें क्यों नहीं धिक्कारा? मोदी जी के राज में कैसे अचानक उनकी ‘कुंडलिनी’ जाग रही है?
बेशक, इन प्रति-प्रश्नों में दम है. लेकिन ये बेहद आंशिक और खिसियाहट भरे हैं. इन प्रति-प्रश्नों से मूल प्रश्न गौण नहीं होता. जिस काँग्रेस की हुक़ूमत के काले पन्नों असहिष्णुता की घटनाओं से भरे पड़े हैं, क्या उसी से तुलना करने के लिए देश ने तीस साल बाद निर्णायक जनादेश दिया है? क्या बीजेपी और संघ का नज़रिया इतना संकुचित हो जाएगा जैसा तुष्टिकरणवादी काँग्रेसी, समाजवादी, जनता दली और वामपंथियों का हम दशकों से देखते आये हैं? क्या दहाड़ने वाले ‘शेर’ के समर्थक क़ायरों जैसी हरक़तें करके ख़ुद को मेडल देना पसन्द करेंगे? काँग्रेसी तो ऐसा ही करते थे, तो उनका हाल सामने है? क्या उन्हें कोई आँसू पोंछने वाला भी मिलता है? क्या अब संघ, लोगों को सहिष्णुता की नयी परिभाषा सीखाने के लिए आगे नहीं आएगा? क्या गाँधी-गाँधी रटने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को महात्मा की सहिष्णुता की परिभाषा को जन-जन तक पहुँचाने का बीड़ा नहीं उठाना चाहिए? ये उनकी ‘मन की बात’ कब बनेगा? क्या वो खाली भाषणों के लिए ही 125 करोड़ भारतवासियों के प्रधानमंत्री हैं और मुट्ठीभर सिर-फिरे कट्टरवादियों के ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’?
केन्द्रीय संस्कृति राज्य मंत्री महेश शर्मा पेशे से डॉक्टर हैं. बड़े अस्पतालों का मालिक बनने से पहले वो बहुत दयालु और नेक़ इंसान थे. व्यक्तिगत रूप से भी जानता हूँ उन्हें. लेकिन सत्ता का ये कैसा अहंकार है कि आज वो कहते हैं कि सम्मान लौटाने वाले साहित्यकार अगर मौज़ूदा माहौल से आहत हैं तो पहले लिखना बन्द करें, फिर उनके बारे में सोचेंगे? मंत्री जी, साहित्यकार भले ही सही न कर रहे हों, उनके तौर-तरीक़ों से आप नाख़ुश हों, तो भी क्या आपकी ज़ुबान का इतना लपलपाना अच्छा है? इस पर चिन्तन कीजिए. क्योंकि अब लौह-पुरुष आडवाणी, यशवन्त सिन्हा और मुख़्तार अब्बास नक़वी जैसे नेता तो आपके आदर्श रहे नहीं. अब नया युग आ गया है. ईंट का जबाव पत्थर से देना है. जो चूँ करे, उसकी ज़ुबान काट लेनी है. जिस पर शक़-सुबहा भी हो, उसे फ़ौरन दंड दे देना है. ये अतिवाद है. अत्यन्त ख़तरनाक है. हम भी आपके शुभचिन्तक ही हैं. समझिए हमारी बातों को भी. फ़ायदा ही होगा. इसे अपनी शान के ख़िलाफ़ क्यों समझते हैं?
भारत के बारे में एक कहावत है कि ये बन्द दिमाग़ वालों का एक ख़ुला समाज है यानी India is an open society with a closed mind. ज़रा सोचिए कि क्या ये सच है? क्या हमारी ऐसी छवि दुनिया को आकर्षित कर सकती है? क्या इससे मोदी जी के दनादन हो रहे विदेश दौरों के लक्ष्यों पर पानी नहीं फिर जाएगा? क्या आप ऐसे देश में जाकर पूँजी लगाना चाहेंगे जहाँ से ‘अख़लाक़’ और ‘कालिख़’ जैसी ख़बरें आएँ? क्या दुनिया ऐसे विविधता वाले भारत पर ही नाज़ करती होगी? क्या हमारी ऐसी सहनशीलता ही किसी को मोहेगी? क्या विदेशियों को लगेगा नहीं कि भारत से गाँधी, बुद्ध, महावीर, नानक की शिक्षाओं ने पलायन कर लिया है? क्या मोदी जी अगली बार अपने विदेश दौरे में ये कहेंगे कि भारत में आ रहा बदलाव सामान्य है? ये उनकी हुक़ूमत में भी बदस्तूर वैसे ही जारी है, जैसा दुनिया ने पिछली सरकारों में देखा है? तब क्या मोदी जी से कोई ये नहीं पूछेगा कि आपके आने से कैसे तेज़ी से बदल रहा है हिन्दुस्तान? क्या तब मोदी जी कहेंगे कि मैंने इस मोर्चे पर भी पाँच साल में वो क़ारनामा करके दिखाया है जो काँग्रेस 60 साल में नहीं कर सकी?
इसलिए प्यारे ‘बहनों-भाइयों’, मोदी जी को सफ़ल बनाना है तो सहिष्णुता का ये मूल मंत्र याद रखिए कि इसे सबसे ज़्यादा बहुसंख्यक समाज को अपनाना पड़ता है. वही इसकी ज़्यादा क़ीमत भी चुकाता है. पाँच फ़ीसदी अल्पसंख्यक असहिष्णुओं पर भी एक फ़ीसदी बहुसंख्यक असहिष्णु भारी पड़ते हैं. एक फ़ीसदी बहुसंख्यक असहिष्णुओं से पूरे देश के बहुसंख्यकों के बारे में छवि बनती है. एक हाथ-पाँव की हड्डी टूटने जैसी बीमारी है जो शरीर को तो प्रभावित करती है, लेकिन इंसान सलामत रहता है. दूसरी दिल या दिमाग़ या गुर्दे जैसे प्रमुख अंग (Vital Organ) की बीमारी है जो शरीर को साथ लेकर जाती है. दोनों को सिर्फ़ बीमारी ही मानना, भारत के लिए बहुत बड़ी और ऐतिहासिक भूल होगी! लिहाज़ा, किसी के बहकाने से भी मूर्ख न बनें, राजनीति को बुनियादी मुद्दों की ओर ले चलें.
ABP न्यूज़ पर आया हुआ ब्लॉग।
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