Friday, 27 March 2015

हाशिमपुरा कांड: सबक़ लेने की ज़रूरत

सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन कहती हैं कि हाशिमपुरा कांड से सबक़ लेने की ज़रूरत है.
पहला सबक
ये है कि किसी मुकदमे की जल्द सुनवाई का फैसला चुनिंदा मामलों में ही नहीं लिया जा सकता. हर वो मामला जिसमें ज़िंदगी, आज़ादी और नागरिकों के अधिकार का मसला शामिल हो, उसका स्पीडी ट्रायल या जल्द सुनवाई होनी चाहिए. फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट महज तिकड़म भर हैं जो आम लोगों की क़ीमत पर कुछ गिने चुने लोगों को खुश करने के लिए बनाए गए हैं.
दूसरा
ये है कि इतने लोगों की दिल दहला देने वाली हत्या के मुकदमे की सुनवाई के पूरे होने में किसी भी सूरत में 28 साल नहीं लगने चाहिए.
यह बिना किसी संदेह के साफ पता चलता है कि जब पीड़ित गरीब लोग हों, दलित हों, हाशिये पर खड़े लोग हों या फिर मुसलमान हों तो हमारी व्यवस्था उन्हें इंसाफ नहीं दिला सकती और निश्चित रूप से कभी नहीं दिलाएगी.
तीसरा सबक
उन लोगों के लिए जो पुलिस सुधारों की बात करते हैं. इनमें 'मशहूर' प्रकाश सिंह भी हैं. ऐसा क्यों हैं कि वे कभी भी जिम्मेदारी तय करने के बारे में बात नहीं करते? इस मामले में ड्यूटी के समय आपराधिक लापरवाही के कौन ज़िम्मेदार हैं?
यह कोई रहस्य की बात नहीं है कि जब पुलिस के अफसर दूसरे पुलिस अधिकारियों की जांच करते हैं तो 'भाईचारे का बंधन' (ये शब्द सुप्रीम कोर्ट के हैं न कि मेरे) यह तय करता है कि पूरी प्रक्रिया बिगड़कर ख़राब हो जाए. सबसे मज़बूत सबूतों को जान बूझकर दबा दिया जाता है. इस मामले में भी सबसे मज़बूत सबूत को दबाया गया, नष्ट कर दिया गया और नतीज़तन अदालत के सामने कभी नहीं लाया गया.
चौथा
इसे रिकॉर्ड पर लाया जाना चाहिए था कि इस हत्याकांड के अभियुक्त पुलिसवालों को कभी भी निलंबित नहीं किया गया. वे पुलिस बल में बने रहे और उनमें से कुछ को तो तरक्की भी दी गई. उनके पास जांच को नियंत्रित और इसके नतीजों को प्रभावित करने के साधन और काबिलियत थी.
पांचवां सबक
ये है कि यह बात भी रिकॉर्ड पर लाई जानी चाहिए थी कि हाशिमपुरा नरसंहार की घटना 22 मई 1987 को हुई. तब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सरकार का शासन था और केंद्र में भी इसी पार्टी का राज था. जब सांप्रदायिक हिंसा की आग भड़कती है और जब लोगों को सांप्रदायिक आधार पर मारा जाता है तो सभी राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं भी एक सी होती हैं. उनके बीच एक तरह की समझदारी है कि सांप्रदायिक आधार पर किसी को निशाना बनाने वाले वर्दीधारियों को किसी भी कीमत पर बचाया जाना चाहिए. इस मामले में कांग्रेस बीजेपी से कतई अलग नहीं है.
छठा सबक
ये है कि आखिर क्यों कुछ पीड़ितों के साथ बाक़ी पीड़ितों से अलग बर्ताव किया जाता है?
आखिर हम कैसे एक समुदाय के लोगों के खिलाफ़ हुई पुलिस की बर्बरता की गंभीरता को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं.
सातवीं बात
हाशिमपुरा नरसंहार के पीड़ितों को लेकर है. इस गोलीबारी में पांच लोग बच गए थे. हालांकि वे गंभीर रूप से घायल थे. मारे गए अन्य पीड़ितों की तरह ही उन्हें भी हाशिमपुरा से अगवा किया गया था. आधी रात को उन्हें पीएसी की ट्रक में लादकर लाया गया था, फिर गोली मार कर हिंडन नदी में फेंक दिया गया. वे अदालत में पेश हुए और बहादुरी के साथ गवाही दी और उनकी गवाही सुनकर किसी की भी रूह कांप सकती है.
उनकी गवाही से हम ये समझ पाए कि आखिर किस तरह से इन अपराधों को अंजाम दिया गया.
ये समझ में आया कि पुलिस वाले किस तरह से सोच समझ कर, निर्दयतापूर्वक, यंत्रणापूर्ण और निर्लज्ज तरीके से अपराध कर रहे थे मानो उन्हें किसी सजा का कोई डर ही न हो.
आठवां सबक
ये है कि आखिर 21 मार्च के फैसले में हार किसकी हुई? भारत ने खुद को कानून पर चलने वाले संविधानिक गणतंत्र कहने का अधिकार खो दिया. ये पीड़ितों की हार नहीं है जो 28 सालों तक इंसाफ के लिए बहादुरी के साथ लड़े. इस दौरान उन्होंने कभी उम्मीद नहीं छोड़ी.
वे अपने संघर्ष में हमेशा गरिमापूर्ण बने रहे और उन्होंने हमेशा इस बात पर यकीन किया कि इंसाफ किया जाएगा.
लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. और हमें अपना सिर शर्म से झुका लेना चाहिए

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