Saturday 26 September 2015

‬व्यंग्य: एक डेंगू मच्छर का इंटरव्यू

दिल्ली में डेंगू का कहर मचाने वाले एक मच्छर ने अपना इंटरव्यू दिया है...अब इंटरव्यू मच्छर का है तो चर्चा तो होनी ही थी. 
सवाल-आप महामारी क्यों फैला रहे है? आपका प्रकोप बढ़ता जा रहा है?
जवाब-जिसे आप प्रकोप कह रहे हैं, वो हमारी लोकप्रियता है. आज उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश और हरियाणा से दिल्ली तक हर शख्स डेंगू-डेंगू कर रहा है. हमारी लोकप्रियता का सेंसेक्स स्टॉक मार्केट से भी ऊपर है.
सवाल-लेकिन आप बीमारी फैला रहे हैं. ये अच्छी बात नहीं है.
जवाब-तुम इंसानों के यहां अभी भी स्कूलों में गीता पढ़ाने को लेकर विवाद है. लेकिन हमने पैदा होते ही गीता सार समझ लिया-कर्म कर फल की चिंता मत कर. तो हमारा पूरा समाज कर्म कर रहा है.
सवाल-लेकिन आप गरीबों को ज्यादा सताते हैं?
जवाब-ये निराधार आरोप है. डेंगू मच्छर धर्म निरपेक्ष, शर्म निरपेक्ष और शिकार निरपेक्ष है. हम न धर्म के आधार पर भेद करते हैं और न अमीर-गरीब देखकर डंक मारते हैं.
सवाल-लेकिन क्या ये सच नहीं है कि कुछ लोग सॉफ्ट टारगेट हैं, जिन्हें आप पहला निशाना बनाते हैं?
जवाब-बिलकुल नहीं. सॉफ्ट टारगेट तो हमारे लिए सनी लियोनी है. वस्त्र मुक्त अभियान की प्रणेता सनी लियोनी को हम कभी भी अपना शिकार बना सकते हैं. लेकिन हम ऐसा नहीं करते. ये हमारी ईमानदारी भी है और आपके आरोप का जवाब भी.
सवाल-डेंगू मच्छर इंसानों को मौत के मुंह में ले जा रहे हैं. आखिर आप साबित क्या करना चाहते हैं?
जवाब-मच्छर एक गाली हो गई है. मच्छर शब्द कमज़ोरी का प्रतीक बन गया है. और हम दुनिया को बताना चाहते हैं कि कृपया मच्छर समाज को मच्छर न समझें. दुनिया में हर साल साढ़े सात लाख लोगों को मच्छर कम्यूनिटी ऊपर पहुंचकर बता रही है कि उन्हें सीरियसली लिया जाए. भारत में डेंगू मच्छर इस दिशा में सार्थक प्रयास कर रहे हैं और उन्हें खासी कामयाबी भी मिली है.
सवाल-लेकिन जान लेकर ही क्यों ?
जवाब-देखिए हमारा पहला मकसद लोगों को अस्पताल पहुंचाना ही होता है. हम दरअसल राष्ट्र की समृद्धि में योगदान भी देना चाहते हैं. क्योंकि पीड़ितों की वजह से अस्पतालों का, डॉक्टरों का, पैथोलोज़ी लैब का, दवाइयों की दुकानों का टर्नओवर बढ़ता है और इससे देश की जीडीपी में बढ़ोतरी होती है. लेकिन कुछ लोग चल बसते हैं तो उनकी अपनी गलती की वजह से. वक्त पर अस्पताल न पहुंचकर, खुद डॉक्टर बनकर और सुनी सुनाई बातों पर यकीन कर वे खुद अपनी जान लेते हैं. हमारा कोई दोष नहीं.
सवाल-आपने कहा कि आप अमीर-गरीब में फर्क नहीं करते. लेकिन डेंगू मच्छर कभी नेताओं को नहीं डसता. उन्हें कभी अस्पताल नहीं पहुंचाता?
जवाब-मैं शर्मिन्दा हूं. निश्चय ही आपका यह आरोप सही है कि हम नेताओं को नहीं काटते. दरअसल, बीते कई साल से हमारी कोर कमिटी इस बात पर बहस कर रही है लेकिन हर बार यही तय होता है कि राजनेताओं को काटने से हमें खुद डेंगू जैसी गंभीर बीमारी हो सकती है. हो सकता है कि ऐसी कोई बीमारी हो जाए-जिसका इलाज ही ना हो. मैं सिर झुकाकर यह आरोप स्वीकार करता हूं.
सवाल-आखिरी सवाल, आपका प्रकोप 20 साल पहले तक नहीं था. कोई नहीं जानता था डेंगू को. अचानक कैसे आपका उदय हो गया?
जवाब-इंसान जब मच्छर जैसी हरकत करने लगा. गदंगी खुद फैलाए और नाम हमें धरने लगा. तो हमें भी लगा कि इंसानों को उनकी औकात बता दी जाए.

पुरानी कहानी सुनी होगी आप लोगो ने ...एक सज्जन बनारस पहुँचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आता।
‘‘मामाजी ! मामाजी !’’—लड़के ने लपक कर चरण छूए।
वे पहचाने नहीं। बोले—‘‘तुम कौन ?’’
‘‘मैं मुन्ना। आप पहचाने नहीं मुझे ?’’
‘‘मुन्ना ?’’ वे सोचने लगे।
‘‘हाँ, मुन्ना। भूल गये आप मामाजी ! खैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गये।’’
‘‘तुम यहां कैसे ?’’
‘‘मैं आजकल यहीं हूँ।’’
‘‘अच्छा।’’
‘‘हां।’’
मामाजी अपने भांजे के साथ बनारस घूमने लगे। चलो, कोई साथ तो मिला। कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर। फिर पहुँचे गंगाघाट। सोचा, नहा लें।
‘‘मुन्ना, नहा लें ?’’
‘‘जरूर नहाइए मामाजी ! बनारस आये हैं और नहाएंगे नहीं, यह कैसे हो सकता है ?’’
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगाई। हर-हर गंगे।
बाहर निकले तो सामान गायब, कपड़े गायब ! लड़का...मुन्ना भी गायब !
‘‘मुन्ना...ए मुन्ना !’’
मगर मुन्ना वहां हो तो मिले। वे तौलिया लपेट कर खड़े हैं।
‘‘क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है ?’’
‘‘कौन मुन्ना ?’’
‘‘वही जिसके हम मामा हैं।’’
‘‘मैं समझा नहीं।’’
‘‘अरे, हम जिसके मामा हैं वो मुन्ना।’’
वे तौलिया लपेटे यहां से वहां दौड़ते रहे। मुन्ना नहीं मिला।
पुरानीकहानी का नया एडीसन...
भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्रो ! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुझे नहीं पहचाना मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एम.पी.। मुझे नहीं पहचाना ? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।
समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं—क्यों साहब, वह कहीं आपको नज़र आया ? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।
पांच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।

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