Saturday 1 August 2015

مینن اور چند چہرے

یعقوب کو پھانسی نہ ہو اس سلسلے میں مسلمانوں کی طرف سے آواز اٹھانے والے تو چند ہی چہرے تھے، محض اتنے کہ انگلیوں پر گنے جا سکیں. آدھی رات کے بعد بھی بیدرد حاکموں کے دروازوں پر دستک دینے والے بھی مسلمان نہیں تھے. آج پھانسی کی مخالفت میں استعفی دینے والے سپریم کورٹ کے ڈپٹی رجسٹرار پروفیسر انوپ سرےدرناتھ بھی مسلمان نہیں ہیں. یعنی اس پورے معاملے میں مسلمانوں کی طرف سے چند ہی آوازیں آئیں ہیں جنہوں نے اس کی پھانسی کی مخالفت کی تھی. لیکن تری کے گورنر کو وہ بھیڑ جو یعقوب کے جنازہ میں تھی اسے دہشت گرد نظر آئے، کتنی تنگ نظر ہے اس کی عظمت و جلال کی جسے انسانوں میں شامل چھپے دہشت گرد تو نظر آ گئے مگر ان کی پیشانی پر لکھے وہ سوال نہیں نظر آئے جو کہہ رہے تھے کہ کیا یعقوب کا گناہ سچ مچ تعزیرات ہند کے تحت پھانسی ہی تھا، انہیں وہ رپورٹ بھی نظر نہیں آئی جو گزشتہ 17 سال ایوان میں دھول پھانک رہی ہے. انہیں وہ 1100 لوگ بھی نظر نہیں آئے جن کی لاشیں بم دھماکوں سے پہلے سڑ گئیں، پانی ہو گئیں تھیں، مگر ان کے قاتل معززہستی بن گئے. ٹٹولكر دیکھئے گا گورنر کے سینے کو کہیں اس کے بدلے کی آگ میں جلا بھنا ایک تنگ نظر، كتست انسان تو نہیں بیٹھا ہے. ممبئی کے فسادات کی 1100 لاشوں کو چھوڑو، ممبئی کے دھماکوں میں ہلاک 257 بے گناہوں کو چھوڑو، انہی دھماکے میں زخمی ہوئے 750 لوگوں کو بھی چھوڑو یعقوب مینن کو بھی چھوڑو. مجھے ان سب سے زیادہ دکھ اس گونگے بچے کی موت کا ہوتا ہے جس کے پیچھے دنگائی بھاگ رہے تھے اور اس نے ایک پولیس والے سے رحم کی فریاد مگر اس خاکی وردی میں چھپے 'شوسینك، فسادی' نے اس گونگے بچے کو فسادی بھیڑ کے حوالے کر دیا، جس نے اسے جلتی ہوئی آگ میں پھینک دیا. یہ اکیلی موت ان ساری اموات پر بھاری ہیں، جو دھماکوں اور فسادات میں ہوئی ہیں. مگر اس بے رحم پولیس والے کو نچلی عدالت نے پھٹکار لگا کر چھوڑ دیا. اگرچہ جسٹس مسٹر کرشن نے اس ملزم پولیس اہلکار کے خلاف كاروائی کرنے کی سفارش کی تھی. وہ پولیس اہلکار جیل تک نہیں گیا. اگرچہ قانون اور ملک پر سب برابر کا 'حق' ہے. ان سب کے درمیان ادھيارو کے اس دور میں پرو. انوپ سریدرناتھ، پرشانت بھوشن، آنند گروور اور وہ لوگ جو پھانسی سے پہلے معافی کی وکالت کر رہے تھے، اجالو ں کے ٹمٹماتے دئے ہیں، یہ زندہ ہیں تو هندوستان زندہ ہے.

Wasim Akram Tyagi کی قلم سے

याकूब को फांसी न हो इस सिलसिले में मुस्लिमों की तरफ से आवाज उठाने वाले तो चंद ही चेहरे थे, महज इतने कि उंगलियों पर गिने जा सकें। आधी रात के बाद भी बेदर्द हाकिमों के दरवाजों पर दस्तक देने वाले भी मुसलमान नहीं थे। आज फांसी के विरोध में इस्तीफा देने वाले सुप्रिम कोर्ट के डिप्टी रजिस्ट्रार प्रो. अनूप सुरेंद्रनाथ भी मुसलमान नहीं हैं। यानी इस पूरे प्रकरण में मुसलमानों की तरफ से चंद ही आवाजें आईं हैं जिन्होंने उसकी फांसी का विरोध किया था। लेकिन त्रिपुरा के राज्यपाल को वह भीड़ जो याकूब के जनाजे में थी उसमें आतंकवादी नजर आये, कितनी तंग नजर है उस महामहिम की जिसे इंसानों मे छिपे आतंकवादी तो नजर आ गये मगर उनके माथे पर लिखे वे सवाल नहीं नजर आये जो कह रहे थे कि क्या याकूब का गुनाह सच मुच ताजी रात हिंद के तहत फांसी ही था, उन्हें वह रिपोर्ट भी नजर नहीं आई जो पिछले 17 साल सदन में धूल फांक रही है। उन्हें वे 1100 लोग भी नजर नहीं आये जिनकी लाशें बम विस्फोटों से पहले सड़ गईं, जल गईं थी, मगर उनके कातिल माननीय बन गये। टटोलकर देखियेगा राज्यपाल के सीने को कहीं उसमें बदले की आग में जला भुना एक तंग नजर, कुत्सित इंसान तो नहीं बैठा है। मुंबई के दंगों की 1100 लाशों को छोड़ो, मुंबई के विस्फोटों में मरे 257 निर्दोषों को छोड़ो, उन्हीं विस्फोट में घायल हुए 750 लोगों को भी छोड़ो याकूब मैमने को भी छोड़ो। मुझे इन सबसे ज्यादा दुःख उस गूंगे बच्चे की मौत का होता है जिसके पीछे दंगई भाग रहे थे और उसने एक पुलिस वाले से रहम की गुहार लगाई मगर उस खाकी वर्दी में छिपे ‘शिवसैनिक, दंगाई’ ने उस गूंगे बच्चे को दंगाई भीड़ के हवाले कर दिया, जिसने उसे जलती हुई आग में फेंक दिया। यह अकेली मौत उन सारी मौतों पर भारी हैं, जो विस्फोटों और दंगों में हुई हैं। मगर उस निर्दयी पुलिस वाले को निचली अदालत ने फटकार लगाकर छोड़ दिया। हालांकि जस्टिस श्री कृष्ण ने इस आरोपी पुलिसकर्मी के खिलाफ कार्वाई करने की सिफारिश की थी। वह पुलिसकर्मी जेल तक नहीं गया। हालांकि कानून और देश पर सबका बराबर का ‘हक’ है। इन सबके बीच अंधियारों के इस दौर में प्रो. अनूप सुरेंद्रनाथ, प्रशांत भूषण, आनंद ग्रोवर और वे लोग जो फांसी से पहले माफी की वकालत कर रहे थे , उजालों को टिमटमाती लौ हैं, ये जिंदा हैं तो हिंदोस्तान जिंदा है।
@Wasim Akram Tyagi की कलम से

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