दिल्ली में बीजेपी की सीएम उम्मीदवार और देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी की छवि ईमानदार और निडर पुलिस अफसर की मानी जाती है।
लेकिन कुछ तथ्य ऐसे हैं, जो किरण की छवि से विपरीत हैं। जो तथ्य या बातें किरण बेदी की इस कथित ईमानदार छवि को लेकर गढ़े गए हैं, उनकी सच्चाई कुछ और ही हैं।
किरण की 'क्रेन-बेदी' की पहचान ही सवालों के घेरे में है। और उनका ये कहना भी कि इंदिरा गांधी की कार पुल कराने के बाद ही उनका ट्रांसफर गोवा कर दिया गया था। और तो और, उनका ये कहना कि उन्हें दिल्ली में हमेशा राजनीतिक निशाने झेलने पड़े जबकि ऐसा था नहीं।
बताया ये जाता है- नो पार्किंग में खड़ी पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की कार उठवा ली और चालान काटा-
अप्रैल, 2010 में बीएसएस कॉलेज के कार्यक्रम में हिस्सा लेने भोपाल आईं किरण बेदी ने स्टूडेंट को बताया था, ''1982 में दिल्ली में पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की कार गलत पार्किंग में खड़ी थी, जिसके चलते मैंने बिना झिझके कार क्रेन से उठवा ली थी। हालांकि उस वक्त मुझे मालूम था कि यह कार किसकी है और इसका अंजाम क्या हो सकता है। फिर भी अंजाम की परवाह किए बिना मैंने पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की कार पार्किंग से उठवा ली। किरण बेदी के मुताबिक उसके बाद 'फिर वहीं हुआ जो सबके साथ होता है। अगले दिन मेरा ट्रांसफर गोवा कर दिया गया।'
सच्चाई ये है- यह तथ्य किरण बेदी की ही वेबसाइट से लिया गया है। दरअसल, 5 अगस्त 1982 को एक सफेद एम्बेसडर कार DHD-1817 कनॉट सर्कस (बाद में नाम पड़ा कनॉट प्लेस) के पास एक दुकान के बाहर खड़ी थी। तब ट्रैफिक पुलिस के सब-इंस्पेक्टर ने देखा कि कार नो-पार्किंग जोन में है और उसने चालान बना दिया। लेकिन यह चालान कार ड्रायवर का नहीं बल्कि दुकान मालिक का बनाया गया था। इतना ही नहीं, बाद में इस चालान को तब वापस लेने से भी इनकार कर दिया गया, जब बताया गया कि कार पीएम के बेड़े की है। और तो और, उस समय प्रधानमंत्री और उनका परिवार भारत में ही नहीं था और ड्रायवर कार का कुछ सामान लेने अकेला ही कनॉट सर्कस गया था। किरण बेदी तो उस समय घटना के आसपास भी मौजूद नहीं थीं लेकिन खुद को लाइमलाइट में लाने की जुगत में बेदी ने इसका पूरा श्रेय ले लिया।
एक और तथ्य, इंदिरा जब वापस भारत आईं तो उन्होंने इस बात की जांच के आदेश दिए कि वीआईपी सिक्योरिटी और दिल्ली पुलिस में कम्युनिकेशन गैप कैसे हुआ। यहां तक कि उस पुलिस सब इंस्पेक्टर के खिलाफ भी कोई कार्रवाई नहीं की गई जिसने कार पुल की थी और चालान काटा था।
बताया जाता है- पीएम की कार उठवाने के बाद अगले ही दिन बेदी का ट्रांसफर गोवा कर दिया गया।
सच्चाई यह है- बेदी ने यह नहीं बताया कि उन्हें दिल्ली में तैनाती सिर्फ एशियन गेम्स (नवंबर-दिसंबर 1982) के दौरान ट्रैफिक संभालने के लिए मिली थी। उन्हें कनॉट प्लेस की घटना के पूरे सात महीने बाद मार्च 1983 में गोवा भेजा गया। वो भी इसलिए, क्योंकि वह गोवा में होने जा रही चोगम समिट की व्यवस्थाओं के लिए सबसे उपयुक्त अधिकारी मानी गई थीं। बेदी को इंदिरा के शासन काल में एशियन गेम्स और चोगम समिट के बेहतर प्रबंधन के लिए पुरस्कृत किया गया था। इसी को उन्होंने 'क्रेन बेदी' के रूप में भुनाने की कोशिश की।
बताया ये जाता है- इंदिरा और उनके बाद के शासनकाल में किरण बेदी लगातार राजनीतिक निशाने पर थीं क्योंकि वे कई नेताओं की बात मानने से अक्सर इनकार कर देती थीं, जिसके चलते उन्हें बड़ी पोस्ट पर नहीं रखा जाता था।
सच्चाई ये है- दरअसल, देश की पहली महिला आईपीएस होने के नाते बेदी इंदिरा की गुड बुक में थीं। वे उन्हें चर्चा करने बुलाती थीं। उस वक्त इंदिरा के साथ नाश्ता करते उनकी तस्वीरें भी छपती थीं। अस्सी के दशक में ही किरण बेदी उस समय परेशानी में फंस गई थीं जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार के दौरान जस्टिस वाधवा समिति की जांच में किरण बेदी को तीस हजारी कोर्ट परिसर में वकीलों पर लाठीचार्ज कराने का आरोपी पाया गया। उस दौरान वकीलों और नेताओं द्वारा किरण बेदी को सस्पेंड करने का दबाव बनाया गया लेकिन गृह मंत्री बूटा सिंह ने किरण बेदी बचा लिया था।
एक मामला यह भी
1995 में दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने किरण बेदी पर दिल्ली की तिहाड़ जेल में कैद चार्ल्स शोभराज को वीआईपी ट्रीटमेंट देने का आरोप लगाया। बेदी उस समय जेल सुपरिटेंडेंट थीं और उन्होंने शोभराज को टाइपराइटर से लेकर और भी कई चीजें इस्तेमाल करने की आजादी दे रखी थी।
इसके बाद तीस हजारी कोर्ट के वकील और दूसरी राजनीतिक पार्टियों तथा भाजपा के मदनलाल खुराना किरण बेदी के खिलाफ हो गए थे और सभी ने उनके सस्पेंशन की मांग कर डाली।
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