Friday, 13 February 2015

तीस्ता शीतलवाड़ मामले में

तीस्ता शीतलवाड़ मामले में आज तक का स्लग यह है ‘राहत’ पर ‘रईसी’ लगभग यही स्लग बाकी चैनलों पर भी चल रहे हैं, उम्मीद है यही खबर अखबार के पहले पृष्ठों पर भी होगी। गौरतलब है कि 2002 के गुजरात दंगा पीड़ितों ने सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ पर दंगा पीड़ितों के लिए जमा किए गए पैसे के दुरुपयोग का सनसनीखेज आरोप लगाया था। बहरहाल यह मामला कोर्ट में है जिसमें कोर्ट ने कल तक के लिये तीस्ता को राहत दे दी है। मगर सवाल है मीडिया का उसी मीडिया का जो राहत पर रईसी जैसे स्लग चला रही है, पैकेज चला रही है। क्या वही मीडिया भाजपा से यह मालूम करने की ताकत रखती है कि 3000 करोड़ का जो चंदा पार्टी को आता है उसमें कितना गबन होता है ? कितना खर्च होती है ? और कहां से आता है ? टीवी चैनलों पर बैठकर बक – बक करने वाले नेताओं से यह मालूम कर सकेगी कि तुम्हारे घर का खर्च चलता कहां से है ? ये गाड़ियां ये नई ड्रेस आखिर इन सबका खर्चा कहां से आता है ? क्या पार्टी देती है या फिर दलाली करके यह इक्टठा किया जाता है ? तीस्ता पर राहत पर रईसी जैसे स्लग लगाना बहूत आसान है, कभी राम मंदिर के नाम पर चंदा इक्टठा करके उससे अपनी राजनीती चमकाने वालों से पूछ कर देखो कि क्या हुआ उस चंदे का जो देश विदेश से इक्ट्ठा किया गया था ? मंदिर तो बना नहीं मगर पैसा कहां गया ?  है हिम्मत बनाओ पैकेज, है हिम्मत लिखो मंदिर के चंदे का खाया प्रसाद, लिखो चंदे से इंडिया शाईनिंग लाये, चंदे से मोदी के साथ चलने के लिये कहा ? इतना भी नहीं मालूम कर सकते तो इतना ही पूछ लो कि चुनाव के दौरान अखबारों, रेडियो, टीवी, मैट्रो, में लगे विज्ञापन के दौरान के जो खर्चा हुआ था वह कहा से आया था। नहीं मालूम करेगे कभी नहीं करेंगे, क्योंकि मीडिया का हिस्सा तो पहले ही तय कर दिया था। तीस्ता की हैसियत नहीं है, इसलिये वह हिस्सा नहीं निकाल सकती। मीडिया के अंबानियों के आगे टुकड़ा भी नहीं डाल सकती। फिर उसने ऐसे व्यक्ति की आंखों में आंखें डालने की जुर्रत की जिससे मीडिया भी सवाल नहीं कर सकता। फिर सजा तो मिलनी ही है, गुलबर्ग सोसायटी के नाम पर फंसाया तो जाना ही है। एक – एक कर सारे दंगाई, सारे हत्यारे पुलिस कर्मियों को बाहर निकाला जा चुका है, मीडिया तमाशा देखता रहा। नींद तब टूटी जब उन  पीड़ितों के वकील पर आरोप लगे। टूटती भी क्यों न आखिर गलती तीस्ता ने कर ली उसे इंसान नहीं बनना चाहिये थे, प्रोफेशनल रहना चाहिये था। कुछ तो मर ही गये थे, जो जिंदा बचे थे क्यों उनकी लड़ाई लड़ी ? यही तो दुख है, यही तो रांड रौवा है, इस पिल्ले के मरने पर कथित आंसू बहाने वाले और उसके सहयोगियों का, साथ ही हिंदी से ‘हिंदुत्व’ की ओर बढ़ते मीडिया का भी। तीस्ता पर एक आरोप है हेराफेरी का आरोप सही है तो सजा दी जाये। मगर क्या यह सजा सिर्फ तीस्ता के लिये ही होगी या फिर 1927 से चंदे का हिसाब न देने वाले, टूजी, कोयला, खनन, बिजली जैसे घोटालेबाजों को भी सजा होगी। जिनके खिलाफ अनगिनत सबूत है।
@Wasim Akram Tyagi की कलम से

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