राष्ट्रपति के कुछ कहने का क्या कानूनी महत्त्व
होता है? क्या सूचनाओं और प्रशासनिक
कार्रवाइयों को लेकर राष्ट्रपति की टिप्पणियों से
राज्यतंत्र पर असर होता है? क्या प्रचार-तंत्र
राष्ट्रपति के तजुर्बे को सुनने के बाद किसी विषय
को लेकर अपने अभियान के लिए कोई
मर्यादा निर्धारित करता है? ये प्रश्न इसलिए
जरूरी लगते हैं कि राष्ट्रपति को राजनीतिक तौर पर
निरपेक्ष माना जाता है। राष्ट्रपति संविधान के
प्रमुख हैं और संविधान के उद््देश्यों और भावनाओं
के ही अनुरूप पूरे तंत्र को विकसित करने
का दावा और वकालत की जाती है। इन
प्रश्नों की पड़ताल राष्ट्रपति के तेरह अक्तूबर
को समाचारपत्रों में छिटपुट तरीके से छपे एक
साक्षात्कार के बहाने करने की कोशिश कर सकते
हैं। राष्ट्रपति ने नार्वे के पत्रकारों से बातचीत में
कहा कि यह देश की खुशकिस्मती है कि पंद्रह
करोड़ की मुसलिम आबादी में शायद ही कोई
मुसलिम आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हो।
आंतरिक स्तर पर आतंकवादी गतिविधियां न के
बराबर हैं।
पिछले दो-ढाई दशक के दौरान धर्म-विशेष से जोड़
कर आतंकवादी गतिविधियों की जो तस्वीर पेश
की जाती रही है, राष्ट्रपति ने एक तरह से
उसका प्रतिवाद किया है। लेकिन इसके साथ यह
भी सच है कि इन वर्षों में धर्म-विशेष से
आतंकवाद को जोड़ा जाता रहा है। इससे समाज में
एक आंतरिक विभाजन का मानस तैयार हुआ है।
विश्वास के पुल कमजोर हुए हैं और अविश्वास
बढ़ा है। राजनीति की दशा-दिशा के निर्धारण में
आतंकवाद के इस प्रकार के चित्रण ने खासा असर
डाला है।
सैकड़ों की तादाद में पढ़े-लिखे, मध्यम वर्ग के
मुसलिम युवकों को बरसों तक जेल की सलाखों में
रहना पड़ा है। उनमें से अधिकतर के खिलाफ
आरोप साबित नहीं हो पाए और अदालतों ने उन्हें
बेगुनाह मानते हुए रिहा कर दिया। लेकिन ज्यादातर
मामलों के निराधार साबित होने के बावजूद एक
पूरी पीढ़ी कामानस तैयार करने में इन तमाम
घटनाक्रमों की भूमिका रही है।
राष्ट्रपति की संक्षिप्त टिप्पणी के आलोक में
आतंकवादी गतिविधियों के विभिन्न पहलुओं
की पड़ताल की जानी चाहिए। क्या इस तरह
का संदेश समाज में व्यापक स्तर पर पहुंच
पाता है? या यह माना जाए कि किसी खास
प्रयोजन से जुड़े घटनाक्रम के लगातार चलने वाले
सिलसिले को नहीं रोक पाने की स्थिति में समाज में
जैसा वातावरण तैयार हो जाता है उससे समाज इस
तरह के संदेश को स्वीकार करने की स्थिति में
नहीं रह जाता है? संदेश के देने और उसे स्वीकार
करने की स्थितियों के पीछे एक सिद्धांत काम
करता है। इसकी पड़ताल इस रूप में
की जा सकती है कि राष्ट्रपति का यह वक्तव्य
उन समाचारपत्रों में लगभग न के बराबर प्रकाशित
हुआ जो कि धर्म विशेष से जोड़े गए आतंकवाद
को लेकर तरह-तरह की सामग्री प्रमुखता से छापते
रहे हैं। टीवी चैनलों के लिए भी यह
टिप्पणी अप्रासंगिक सामग्री की तरह थी।
अपने यहां आतंकवाद के दो पहलू प्रस्तुत किए
जाते हैं। एक, पड़ोसी इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान
से प्रायोजित आतंकवाद, और दूसरा, उसका देश में
इस्लाम को मानने वालों से जुड़ाव। पाकिस्तान
द्वारा हमारे यहां हिंसा और उपद्रव फैलाने के लिए
उकसाने और मदद करने के आरोप दोनों देशों के
बीच विभाजन की रेखा खिंचने के साथ ही शुरू
हो गए थे। हिंसा और अशांति के लिए पाकिस्तान
की भूमिका के आरोप की जगह आतंकवाद के
आरोप ने पिछले कुछ वर्षों में ली है। यह
भी कहा जा सकता है कि अमेरिका ने विश्व-स्तर
पर आतंकवाद के विस्तार की जो तस्वीर पेश की,
उसी से पुराने आरोपों की जगह नए आरोप ने ले
ली। यह हिंसा और उपद्रव में मददगार बनने में
चरित्रगत बदलाव का भी सूचक है।
मगर अपने यहां आतंकवाद के विस्तार को इस रूप
में प्रचारित किया गया है मानो आंतरिक तौर पर
भी उसे कहीं से समर्थन और सहयोग मिल
रहा हो। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। दरअसल,
यह प्रचार पाकिस्तान के एक इस्लामी राष्ट्र होने
और अपने यहां इस्लाम को मानने
वालों की मौजूदगी के दो अलग-अलग
तथ्यों को एक रिश्ते की तरह पेश करता है। यह
भ्रम का निर्माण है, सच्चाई को समझना नहीं।
पाक प्रायोजित आतंकवाद से रणनीतिक स्तर पर
निपटने का दावा किया गया है। लेकिन इसके साथ
जो महत्त्वपूर्ण बात है वह यह कि सीमापार के
आतंकवाद के साथ आंतरिक जुड़ाव के आरोप में
इतनी ज्यादा कार्रवाइयां की गई हैं
कि उनका सामाजिक ताने-बाने पर गहरा असर हुआ
है। उससे देश की राजनीतिक गतिविधियां प्रभावित
हुई हैं और राजनीतिक सरोकारों के चरित्र में
बुनियादी बदलाव आया है।
राजनीतिक सरोकारों का बदलना प्रशासनिक और
न्यायिक तंत्र की कार्रवाइयों में भी परिलक्षित
होता है। दूसरे शब्दों में कहें कि प्रशासनिक और
न्यायिक तंत्र का राजनीति के लिए इस्तेमाल
किया जा सकता है या राजनीतिक
सरोकारों को बदलने के लिए प्रशासनिक और
न्यायिक तंत्र का। आंतरिक स्तर पर आतंकवाद के
संकट के बहाने पूरे देश की तस्वीर बदल गई है।
मनमोहन सिंह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए
सबसे बड़ा खतरा माओवाद को बताते रहे। उनके
इस तरह के बयान खासकर तब आए, जब यूपीए
सरकार को लग रहा था कि खनिजों के दोहन
का काम अपेक्षित गति से नहीं हो पा रहा है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देश में अवैध खनन
कितने बड़े पैमाने पर होता रहा, क्या वे इससे
अनजान थे? अवैध खनन की जांच के लिए
सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर गठित हुई
समिति की रिपोर्ट बताती है कि यह सब
आला अधिकारियों के जानते-बूझते हुआ और इसमें
अनेक राजनीतिकों की भी मिलीभगत थी।
राष्ट्रपति ने जो अपनी राय जाहिर की है उसके
पीछे आतंकवाद के प्रचार, देश में
उसकी जमीनी हकीकत, आतंकवाद की कथित
घटनाओं और गतिविधियों से जुड़ी जांच, तथ्य
आदि रहे होंगे। लेकिन कानून के तंत्र पर इस तरह
के वक्तव्य का कोई असर इस रूप में
नहीं हो सकता है कि भविष्य में उसके काम करने
का ढर्रा बदल जाए। ऐसे बहुत-से मामले हैं जिनमें
अदालतों ने आतंकवाद के
आरोपों को झूठा पाया और आरोपियों को रिहा कर
दिया। साथ में पुलिस को फटकार भी लगाई। पर
इससे कानून के काम करने के ढंग में क्या कोई
बदलाव आ सका है?
यह दावा किया जाता है कि संसदीय लोकतंत्र के
सभी स्तंभों की अपनी स्वायत्तता है और इनसे
एक संतुलन की स्थिति बनाए रखने
की अपेक्षा की जाती है। लेकिन यह
स्वायत्तता संतुलित है या किसी तरफ झुकी हुई
भी है? झुकी हुई है तो किस तरफ?
स्वायत्तता का अर्थ इस रूप में भी होता है
कि एक विशेष आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक
धारा के लिए मौके की नजाकत समझते हुए
विभिन्न स्तंभों में से एक खुद को अगुआई के लिए
प्रस्तुत कर देता है। मसलन, जो सीधे तौर पर
विधायिका नहीं कर सकती वह न्यायालय के जरिए
हो सकता है। जो न्यायालय नहीं कर सकता उसे
कार्यपालिका कर सकती है और एक खास तरह के
पूर्वग्रहों के पक्ष में माहौल बना सकती है।
एक अध्ययन किया जाए कि बाहरी या पाक
प्रायोजित आतंकवाद के लिए आंतरिक तौर पर
किसके निशाने पर कौन होता है तो यह बात
स्पष्ट हो सकती है कि प्रायोजित आतंकवाद से
निपटने का मकसद अपेक्षया कम सक्रिय है।
मनमोहन सिंह ने आंतरिक आतंकवाद को सबसे बड़े
संकट के रूप में प्रस्तुत किया था।
जबकि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की टिप्पणी एक
बहु-प्रचारित धारणा के प्रति आगाह करती है।
लेकिन इसका असर वैसा नहीं देखा जा सकता है
जैसा एक राष्ट्राध्यक्ष के किसी संदेश
का होना चाहिए। वास्तव में राष्ट्राध्यक्ष के
भी किसी वक्तव्य का इस्तेमाल राजनीतिक,
सामाजिक और आर्थिक आधार पर ही होता है।
समाज और राजनीति में जिस वर्ग और विचार
का बोलबाला होता है वह अगर अनुकूल है
तो संदेश असरकारी होता है, वरना संदेश
दबा दिया जाता है।
आतंकवाद की समस्या का सिरा अंतरराट्रीय
संबंधों पर टिका हुआ है। अमेरिका भले यह
कहता हो कि पाकिस्तान आतंकवाद के एक केंद्र
के रूप में दिखाई दे रहा है, जैसा कि हाल में
पेंटागन की एक रिपोर्ट में कहा गया है, लेकिन
इसके साथ-साथ क्या यह भी उतना ही सच नहीं है
कि आतंकवाद से निपटने के नाम पर
अमेरिका अपने आर्थिक और रणनीतिक हित
साधता रहा है। अमेरिका की यात्रा में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद के खिलाफ
आपसी सहयोग के समझौते किए।
यह आतंकवाद आंतरिक और बाहरी आतंकवाद के
रूप में परिभाषित नहीं है। जिन देशों के साथ नए
किस्म के रिश्ते बन रहे हैं उनमें आतंकवाद के
खिलाफ सहयोग और समझौते प्रमुख होते हैं।
इजराइल भी इनमें शामिल हैं। क्या यह महज पाक
प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के लिए है?
काफी समय से हिंदुत्ववादी संगठन यह प्रचार करते
रहे हैं कि मदरसे आतंकवाद के अड््डे हैं।
वहां जिहाद सिखाया जाता है और देश-
विरोधी गतिविधियां होती हैं। योगी आदित्यनाथ ने
हाल में उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों के समय
भाजपा के लिए प्रचार करते हुए अनेक बार
कहा कि मदरसे दंगाइयों और आतंकवादियों के
प्रशिक्षण केंद्र की तरह काम कर रहे हैं। लेकिन
मदरसों के बारे में खुद खुफिया एजेंसियों की पिछले
दिनों आई रिपोर्ट ने ऐसे दुष्प्रचार का जवाब दे
दिया है। केंद्र सरकार को सौंपी गई इस रिपोर्ट ने
मदरसों में जिहाद सिखाए जाने के आरोप को सिरे
से खारिज कर दिया है।
राष्ट्रपति के वक्तव्य का वह
हिस्सा ही महत्त्वपूर्ण बना जो कि निर्यात किए
जाने वाले आतंकवाद को लेकर था। देश के भीतर
मुसलिम समुदाय के बारे में उनका कथन हाशिये पर
डाल दिया गया। इससे लगता है कि आतंकवाद
को खास तरीके से परिभाषित करने और इस तरह
एक खास किस्म का माहौल बनाने
का जो सिलसिला चला आ रहा है वह पहले
की तरह जारी रह सकता है। राष्ट्रपति के इस
तरह के वक्तव्यों के आंतरिक महत्त्व वाले हिस्से
को प्रभुत्वशाली वर्ग महसूस
नहीं करना चाहता है। ऐसा महज संयोगवश
होता है या किसी विषय पर विमर्श की दिशा तय
करने का एक ढांचा बना हुआ है, जिसमें आतंकवाद
के सच का आधा हिस्सा ही बहस पर
हावी दिखता
http://www.jansatta.com/politics/half-true-of-terrorism/5401/
होता है? क्या सूचनाओं और प्रशासनिक
कार्रवाइयों को लेकर राष्ट्रपति की टिप्पणियों से
राज्यतंत्र पर असर होता है? क्या प्रचार-तंत्र
राष्ट्रपति के तजुर्बे को सुनने के बाद किसी विषय
को लेकर अपने अभियान के लिए कोई
मर्यादा निर्धारित करता है? ये प्रश्न इसलिए
जरूरी लगते हैं कि राष्ट्रपति को राजनीतिक तौर पर
निरपेक्ष माना जाता है। राष्ट्रपति संविधान के
प्रमुख हैं और संविधान के उद््देश्यों और भावनाओं
के ही अनुरूप पूरे तंत्र को विकसित करने
का दावा और वकालत की जाती है। इन
प्रश्नों की पड़ताल राष्ट्रपति के तेरह अक्तूबर
को समाचारपत्रों में छिटपुट तरीके से छपे एक
साक्षात्कार के बहाने करने की कोशिश कर सकते
हैं। राष्ट्रपति ने नार्वे के पत्रकारों से बातचीत में
कहा कि यह देश की खुशकिस्मती है कि पंद्रह
करोड़ की मुसलिम आबादी में शायद ही कोई
मुसलिम आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हो।
आंतरिक स्तर पर आतंकवादी गतिविधियां न के
बराबर हैं।
पिछले दो-ढाई दशक के दौरान धर्म-विशेष से जोड़
कर आतंकवादी गतिविधियों की जो तस्वीर पेश
की जाती रही है, राष्ट्रपति ने एक तरह से
उसका प्रतिवाद किया है। लेकिन इसके साथ यह
भी सच है कि इन वर्षों में धर्म-विशेष से
आतंकवाद को जोड़ा जाता रहा है। इससे समाज में
एक आंतरिक विभाजन का मानस तैयार हुआ है।
विश्वास के पुल कमजोर हुए हैं और अविश्वास
बढ़ा है। राजनीति की दशा-दिशा के निर्धारण में
आतंकवाद के इस प्रकार के चित्रण ने खासा असर
डाला है।
सैकड़ों की तादाद में पढ़े-लिखे, मध्यम वर्ग के
मुसलिम युवकों को बरसों तक जेल की सलाखों में
रहना पड़ा है। उनमें से अधिकतर के खिलाफ
आरोप साबित नहीं हो पाए और अदालतों ने उन्हें
बेगुनाह मानते हुए रिहा कर दिया। लेकिन ज्यादातर
मामलों के निराधार साबित होने के बावजूद एक
पूरी पीढ़ी कामानस तैयार करने में इन तमाम
घटनाक्रमों की भूमिका रही है।
राष्ट्रपति की संक्षिप्त टिप्पणी के आलोक में
आतंकवादी गतिविधियों के विभिन्न पहलुओं
की पड़ताल की जानी चाहिए। क्या इस तरह
का संदेश समाज में व्यापक स्तर पर पहुंच
पाता है? या यह माना जाए कि किसी खास
प्रयोजन से जुड़े घटनाक्रम के लगातार चलने वाले
सिलसिले को नहीं रोक पाने की स्थिति में समाज में
जैसा वातावरण तैयार हो जाता है उससे समाज इस
तरह के संदेश को स्वीकार करने की स्थिति में
नहीं रह जाता है? संदेश के देने और उसे स्वीकार
करने की स्थितियों के पीछे एक सिद्धांत काम
करता है। इसकी पड़ताल इस रूप में
की जा सकती है कि राष्ट्रपति का यह वक्तव्य
उन समाचारपत्रों में लगभग न के बराबर प्रकाशित
हुआ जो कि धर्म विशेष से जोड़े गए आतंकवाद
को लेकर तरह-तरह की सामग्री प्रमुखता से छापते
रहे हैं। टीवी चैनलों के लिए भी यह
टिप्पणी अप्रासंगिक सामग्री की तरह थी।
अपने यहां आतंकवाद के दो पहलू प्रस्तुत किए
जाते हैं। एक, पड़ोसी इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान
से प्रायोजित आतंकवाद, और दूसरा, उसका देश में
इस्लाम को मानने वालों से जुड़ाव। पाकिस्तान
द्वारा हमारे यहां हिंसा और उपद्रव फैलाने के लिए
उकसाने और मदद करने के आरोप दोनों देशों के
बीच विभाजन की रेखा खिंचने के साथ ही शुरू
हो गए थे। हिंसा और अशांति के लिए पाकिस्तान
की भूमिका के आरोप की जगह आतंकवाद के
आरोप ने पिछले कुछ वर्षों में ली है। यह
भी कहा जा सकता है कि अमेरिका ने विश्व-स्तर
पर आतंकवाद के विस्तार की जो तस्वीर पेश की,
उसी से पुराने आरोपों की जगह नए आरोप ने ले
ली। यह हिंसा और उपद्रव में मददगार बनने में
चरित्रगत बदलाव का भी सूचक है।
मगर अपने यहां आतंकवाद के विस्तार को इस रूप
में प्रचारित किया गया है मानो आंतरिक तौर पर
भी उसे कहीं से समर्थन और सहयोग मिल
रहा हो। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। दरअसल,
यह प्रचार पाकिस्तान के एक इस्लामी राष्ट्र होने
और अपने यहां इस्लाम को मानने
वालों की मौजूदगी के दो अलग-अलग
तथ्यों को एक रिश्ते की तरह पेश करता है। यह
भ्रम का निर्माण है, सच्चाई को समझना नहीं।
पाक प्रायोजित आतंकवाद से रणनीतिक स्तर पर
निपटने का दावा किया गया है। लेकिन इसके साथ
जो महत्त्वपूर्ण बात है वह यह कि सीमापार के
आतंकवाद के साथ आंतरिक जुड़ाव के आरोप में
इतनी ज्यादा कार्रवाइयां की गई हैं
कि उनका सामाजिक ताने-बाने पर गहरा असर हुआ
है। उससे देश की राजनीतिक गतिविधियां प्रभावित
हुई हैं और राजनीतिक सरोकारों के चरित्र में
बुनियादी बदलाव आया है।
राजनीतिक सरोकारों का बदलना प्रशासनिक और
न्यायिक तंत्र की कार्रवाइयों में भी परिलक्षित
होता है। दूसरे शब्दों में कहें कि प्रशासनिक और
न्यायिक तंत्र का राजनीति के लिए इस्तेमाल
किया जा सकता है या राजनीतिक
सरोकारों को बदलने के लिए प्रशासनिक और
न्यायिक तंत्र का। आंतरिक स्तर पर आतंकवाद के
संकट के बहाने पूरे देश की तस्वीर बदल गई है।
मनमोहन सिंह देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए
सबसे बड़ा खतरा माओवाद को बताते रहे। उनके
इस तरह के बयान खासकर तब आए, जब यूपीए
सरकार को लग रहा था कि खनिजों के दोहन
का काम अपेक्षित गति से नहीं हो पा रहा है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में देश में अवैध खनन
कितने बड़े पैमाने पर होता रहा, क्या वे इससे
अनजान थे? अवैध खनन की जांच के लिए
सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर गठित हुई
समिति की रिपोर्ट बताती है कि यह सब
आला अधिकारियों के जानते-बूझते हुआ और इसमें
अनेक राजनीतिकों की भी मिलीभगत थी।
राष्ट्रपति ने जो अपनी राय जाहिर की है उसके
पीछे आतंकवाद के प्रचार, देश में
उसकी जमीनी हकीकत, आतंकवाद की कथित
घटनाओं और गतिविधियों से जुड़ी जांच, तथ्य
आदि रहे होंगे। लेकिन कानून के तंत्र पर इस तरह
के वक्तव्य का कोई असर इस रूप में
नहीं हो सकता है कि भविष्य में उसके काम करने
का ढर्रा बदल जाए। ऐसे बहुत-से मामले हैं जिनमें
अदालतों ने आतंकवाद के
आरोपों को झूठा पाया और आरोपियों को रिहा कर
दिया। साथ में पुलिस को फटकार भी लगाई। पर
इससे कानून के काम करने के ढंग में क्या कोई
बदलाव आ सका है?
यह दावा किया जाता है कि संसदीय लोकतंत्र के
सभी स्तंभों की अपनी स्वायत्तता है और इनसे
एक संतुलन की स्थिति बनाए रखने
की अपेक्षा की जाती है। लेकिन यह
स्वायत्तता संतुलित है या किसी तरफ झुकी हुई
भी है? झुकी हुई है तो किस तरफ?
स्वायत्तता का अर्थ इस रूप में भी होता है
कि एक विशेष आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक
धारा के लिए मौके की नजाकत समझते हुए
विभिन्न स्तंभों में से एक खुद को अगुआई के लिए
प्रस्तुत कर देता है। मसलन, जो सीधे तौर पर
विधायिका नहीं कर सकती वह न्यायालय के जरिए
हो सकता है। जो न्यायालय नहीं कर सकता उसे
कार्यपालिका कर सकती है और एक खास तरह के
पूर्वग्रहों के पक्ष में माहौल बना सकती है।
एक अध्ययन किया जाए कि बाहरी या पाक
प्रायोजित आतंकवाद के लिए आंतरिक तौर पर
किसके निशाने पर कौन होता है तो यह बात
स्पष्ट हो सकती है कि प्रायोजित आतंकवाद से
निपटने का मकसद अपेक्षया कम सक्रिय है।
मनमोहन सिंह ने आंतरिक आतंकवाद को सबसे बड़े
संकट के रूप में प्रस्तुत किया था।
जबकि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की टिप्पणी एक
बहु-प्रचारित धारणा के प्रति आगाह करती है।
लेकिन इसका असर वैसा नहीं देखा जा सकता है
जैसा एक राष्ट्राध्यक्ष के किसी संदेश
का होना चाहिए। वास्तव में राष्ट्राध्यक्ष के
भी किसी वक्तव्य का इस्तेमाल राजनीतिक,
सामाजिक और आर्थिक आधार पर ही होता है।
समाज और राजनीति में जिस वर्ग और विचार
का बोलबाला होता है वह अगर अनुकूल है
तो संदेश असरकारी होता है, वरना संदेश
दबा दिया जाता है।
आतंकवाद की समस्या का सिरा अंतरराट्रीय
संबंधों पर टिका हुआ है। अमेरिका भले यह
कहता हो कि पाकिस्तान आतंकवाद के एक केंद्र
के रूप में दिखाई दे रहा है, जैसा कि हाल में
पेंटागन की एक रिपोर्ट में कहा गया है, लेकिन
इसके साथ-साथ क्या यह भी उतना ही सच नहीं है
कि आतंकवाद से निपटने के नाम पर
अमेरिका अपने आर्थिक और रणनीतिक हित
साधता रहा है। अमेरिका की यात्रा में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद के खिलाफ
आपसी सहयोग के समझौते किए।
यह आतंकवाद आंतरिक और बाहरी आतंकवाद के
रूप में परिभाषित नहीं है। जिन देशों के साथ नए
किस्म के रिश्ते बन रहे हैं उनमें आतंकवाद के
खिलाफ सहयोग और समझौते प्रमुख होते हैं।
इजराइल भी इनमें शामिल हैं। क्या यह महज पाक
प्रायोजित आतंकवाद से निपटने के लिए है?
काफी समय से हिंदुत्ववादी संगठन यह प्रचार करते
रहे हैं कि मदरसे आतंकवाद के अड््डे हैं।
वहां जिहाद सिखाया जाता है और देश-
विरोधी गतिविधियां होती हैं। योगी आदित्यनाथ ने
हाल में उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों के समय
भाजपा के लिए प्रचार करते हुए अनेक बार
कहा कि मदरसे दंगाइयों और आतंकवादियों के
प्रशिक्षण केंद्र की तरह काम कर रहे हैं। लेकिन
मदरसों के बारे में खुद खुफिया एजेंसियों की पिछले
दिनों आई रिपोर्ट ने ऐसे दुष्प्रचार का जवाब दे
दिया है। केंद्र सरकार को सौंपी गई इस रिपोर्ट ने
मदरसों में जिहाद सिखाए जाने के आरोप को सिरे
से खारिज कर दिया है।
राष्ट्रपति के वक्तव्य का वह
हिस्सा ही महत्त्वपूर्ण बना जो कि निर्यात किए
जाने वाले आतंकवाद को लेकर था। देश के भीतर
मुसलिम समुदाय के बारे में उनका कथन हाशिये पर
डाल दिया गया। इससे लगता है कि आतंकवाद
को खास तरीके से परिभाषित करने और इस तरह
एक खास किस्म का माहौल बनाने
का जो सिलसिला चला आ रहा है वह पहले
की तरह जारी रह सकता है। राष्ट्रपति के इस
तरह के वक्तव्यों के आंतरिक महत्त्व वाले हिस्से
को प्रभुत्वशाली वर्ग महसूस
नहीं करना चाहता है। ऐसा महज संयोगवश
होता है या किसी विषय पर विमर्श की दिशा तय
करने का एक ढांचा बना हुआ है, जिसमें आतंकवाद
के सच का आधा हिस्सा ही बहस पर
हावी दिखता
http://www.jansatta.com/politics/half-true-of-terrorism/5401/
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