Thursday, 14 May 2015

औरंगज़ेब आलमगीर

तुम्हें ले-देके सारी दास्तां में याद है इतना। कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।।
पुस्‍तक: ‘‘इतिहास के साथ यह अन्याय‘‘
लेखक: प्रो. बी. एन पाण्डेय, भूतपूर्व राज्यपाल उडीसा, राज्यसभा के सदस्य, इलाहाबाद नगरपालिका के चेयरमैन एवं इतिहासकार ---जब में इलाहाबाद नगरपालिका का चेयरमैनथा (1948 ई. से 1953 ई. तक) तो मेरे
सामने दाखिल- खारिज का एक मामला लाया गया। यह मामला सोमेश्वरनाथ महादेव मन्दिर से संबंधित जायदाद के बारे में था। मन्दिर के महंत की मृत्यु के बाद
उस जायदाद के दो दावेदारखड़े हो गए थे। एक दावेदार ने कुछ दस्तावेज़ दाखिल किये जो उसके खानदान में बहुत दिनों से चले आ रहे थे। इनदस्तावेज़ों
में शहंशाह औरंगज़ेब के फ़रमानभी थे। औरंगज़ेब ने इस मन्दिर को जागीरऔर नक़द अनुदानदिया था। मैंने सोचा कि ये फ़रमानजाली होंगे। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हो सकता हैकि औरंगज़ेब जो मन्दिरों को तोडने के लिए प्रसिद्धहै, वह एक मन्दिर को यह कह करजागीर देसकता हे यहजागीरपूजा और भोग के लिए दी जा रही है। आखि़रऔरंगज़ेब कैस बुतपरस्ती के साथ अपने को शरीक कर सकता था। मुझे यक़ीन था कि ये दस्तावेज़ जाली हैं, परन्तु कोई निर्णय लेने से पहले मैंने डा. सरतेज बहादुर सप्रु से राय लेना उचित समझा।
वे अरबी और फ़ारसी के अच्छे जानकार थे। मैंने दस्तावेज़ें उनके सामने पेश करके उनकी राय मालूम की तो उन्होंने दस्तावेज़ों का अध्ययनकरने के बाद कहा
कि औरंगजे़ब के ये फ़रमानअसली और वास्तविक हैं। इसके बाद उन्होंने अपने मुन्शी से बनारस के जंगमबाडी शिव मन्दिर की फ़ाइल लाने को कहा। यह मुक़दमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में 15 साल से विचाराधीनथा। जंगमबाड़ी मन्दिरके महंत के पास भी औरंगज़ेब के कई फ़रमानथे, जिनमें मन्दिर को जागीर दी गई थी।
इनदस्तावेज़ों ने औरंगज़ेब की एक नई तस्वीरमेरे सामने पेश की, उससे मैं आश्चर्य में पड़ गया। डाक्टर सप्रू की सलाहपर मैंने भारत के पिभिन्न प्रमुख मन्दिरों के महंतो के पास पत्र भेजकर उनसे निवेदन किया कि यदि उनके पास औरंगज़ेब के कुछ फ़रमानहों जिनमें उनमन्दिरों को जागीरें दी गई हों तो वे कृपा करके उनकी फोटो-स्टेट कापियां मेरे पास भेज दें। अब मेरे सामने एक और आश्चर्य की बात आई। उज्जैनके महाकालेश्वर मन्दिर, चित्रकूट के बालाजी मन्दिर, गौहाटी के उमानन्द मन्दिर, शत्रुन्जाई के जैनमन्दिर और उत्तर भारत में फैले हुए अन्य प्रमुख मन्दिरों एवं गुरूद्वारों से सम्बन्धित जागीरों के लिए औरंगज़ेब के फरमानों की नक़लें मुझे प्राप्तहुई।
यह फ़रमान1065 हि. से 1091 हि., अर्थात 1659 से 1685 ई. के बीच जारी किए गए थे। हालांकि हिन्दुओं औरउनके मन्दिरों के प्रति औरंगज़ेब के उदार रवैये
की ये कुछ मिसालें हैं, फिरभी इनसे यह प्रमाण्ति हो जाता है कि इतिहासकारों ने उसके सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, वह पक्षपात पर आधारित है और इससे उसकी तस्वीर का एक ही रूख सामने लाया गया है। भारत एक विशाल देश है, जिसमें हज़ारों मन्दिर चारों ओर फैले हुए हैं। यदि सही ढ़ंग से खोजबीन की जाए तो मुझे विश्वास है कि और बहुत-से ऐसे उदाहरण मिल जाऐंगे जिनसे औरंगज़ेब का गै़र-मुस्लिमों के प्रति उदार व्यवहार का पता चलेगा। औरंगज़ेब के फरमानों की जांच-पड़ताल के सिलसिले में मेरा सम्पर्क श्री ज्ञानचंद और पटना म्यूजियम के भूतपूर्व क्यूरेटर डा. पी एल. गुप्ता से हुआ। ये महानुभाव
भी औरंगज़ेब के विषय में ऐतिहासिक दृस्टि से अति महत्वपूर्ण रिसर्च कर रहे
थे। मुझे खुशी हुई कि कुछ अन्य अनुसन्धानकर्ता भी सच्चाई को तलाश करने में
व्यस्त हैं और काफ़ी बदनाम औरंगज़ेब की तस्वीर को साफ़ करने में अपना योगदान देरहेहैं। औरंगज़ेब, जिसे पक्षपाती इतिहासकारों ने भारत में मुस्लिम हकूमत का प्रतीक मान रखा है। उसके बारें में वे क्या विचार रखते हैंइसके विषय में यहां तक कि ‘शिबली’ जैसे इतिहास गवेषी कवि को कहना पड़ाः
तुम्हें ले-देके सारी दास्तां में याद है इतना। कि औरंगज़ेब हिन्दू-कुश था, ज़ालिम था, सितमगर था।।
औरंगज़ेब पर हिन्दू-दुश्मनी के आरोप के सम्बन्ध में जिस फरमानको बहुत उछाला गया है, वह ‘फ़रमाने- बनारस’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह फ़रमानबनारस के मुहल्ला गौरी के एक ब्राहमण परिवारसे संबंधित है। 1905ई. में इसे गोपी
उपाघ्याय के नवासे मंगल पाण्डेय ने सिटि मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया था।
एसे पहली बार ‘एसियाटिक- सोसाइटी’ बंगाल के जर्नल (पत्रिका) ने 1911 ई. में प्रकाशित किया था। फलस्वरूप रिसर्च करनेवालों का ध्यान इधर गया। तब से इतिहासकार प्रायः इसका हवाला देते आ रहे हैं और वे इसके आधार परऔरंगज़ेब पर आरोप लगाते हैं कि उसने हिन्दू मन्दिरों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था, जबकि इस फ़रमानका वास्तविक महत्व उनकी निगाहों से आझल रहजाता है। यह लिखित फ़रमान औरंगज़ेब ने 15 जुमादुल-अव्वल 1065 हि. (10 मार्च 1659 ई.) को बनारस के स्थानिय अधिकारी के नाम भेजा था जो एक ब्राहम्ण की शिकायत
के सिलसिले में जारी किया गया था। वह ब्राहमण एक मन्दिरका महंत था और कुछ
लोग उसे परेशानकर रहे थे। फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘अबुल हसनको हमारी शाही उदारता का क़ायल रहते हुएयह जानना चाहिए कि हमारी स्वाभाविक दयालुता और प्राकृतिक न्याय के अनुसार हमारा सारा अनथक संघर्ष और न्यायप्रिय इरादों
का उद्देश्य जन-कल्याण को बढ़ावा देना है और प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्गों के हालात को बेहतर बनाना है। अपने पवित्र कानूनके अनुसार हमने फैसला किया हैकि प्राचीनमन्दिरों को तबाह औरबर्बाद नहीं किया जाएँ, अलबत्ता नए मन्दिरन बनए जाएँ। हमारे इस न्याय पर आधारित काल में हमारे प्रतिष्ठित एवं पवित्र दरबार में यह सूचना पहुंची है कि कुछ लोग बनारस शहर और उसके आस-पास के हिन्दूनागरिकों और मन्दिरों के ब्राहम्णों-पुरोहितों को
परेशानकर रहे हैं तथा उनके मामलों में दख़ल दे रहेहैं, जबकि ये प्राचीन मन्दिर उन्हीं की देख-रेख में हैं। इसके अतिरिक्त वे चाहते हैं कि इन ब्राहम्णों को इनके पुराने पदों से हटा दें। यह दखलंदाज़ी इस समुदाय के लिए
परेशानी का कारण है। इसलिए यहहमारा फ़रमानहै कि हमारा शाही हुक्म पहुंचते ही तुम हिदायत जारी कर दो कि कोई भी व्यक्ति ग़ैर-कानूनी रूप से दखलंदाजी नकरे और नउन स्थानों के ब्राहम्णों एवं अन्य हिन्दु नागरिकों को
परेशानकरे। ताकि पहले की तरह उनका क़ब्ज़ा बरक़रार रहे और पूरे मनोयोग से
वे हमारी ईश- प्रदत्त सल्तनत के लिएप्रार्थना करते रहें। इस हुक्म को तुरन्त लागू किया जाये।’’
इस फरमानसे बिल्कुल स्पष्ट हैंकि औरंगज़ेब ने नए मन्दिरों के निर्माण के विरूद्ध कोई नया हुक्म जारी नहीं किया, बल्कि उसने केवल पहले से चली आ रही परम्परा का हवाला दिया और उस परम्परा की पाबन्दी पर ज़ोर दिया। पहले से मौजूद मन्दिरों को ध्वस्त करने का उसने कठोरता से विरोध किया। इस फ़रमान से यहभी स्पष्ट हो जाता हैकि वह
हिन्दू प्रजा को सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर देने का इच्छुक था। यह अपने जैसा केवल एक ही फरमान नहीं है। बनारस में ही एक और फरमानमिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगज़ेब वास्तव में चाहता था कि हिन्दू
सुख-शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर सकें। यह फरमानइस प्रकार हैः ‘‘रामनगर (बनारस) के महाराजाधिराज राजा रामसिंह ने हमारे दरबारमें अर्ज़ी पेश की हैंकि उनके पिता ने गंगा नदी के किनारे अपने धार्मिक गुरू भगवत गोसाईं के निवास के लिए एक मकान बनवाया था। अब कुछ लोग गोसाईं को परेशानकर रहे हैं। अतःयह शाही फ़रमान जारी किया जाता है कि इस फरमान के पहुंचते ही सभी वर्तमान एवं आने वाले अधिकारी इस बात का पूरा ध्यान रखें कि कोई भी व्यक्ति
गोसाईं को परेशानएवं डरा-धमका न सके, और नउनके मामलें में हस्तक्षेप करे, ताकि वे पूरे मनोयोग के साथ हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए प्रार्थना करते रहें। इस फरमान परतुरं अमलगिया जाए।’’ (तीरीख-17 बबी उस्सानी 1091 हिजरी) जंगमबाड़ी मठ के महंत के पास मौजूद कुछ फरमानों से पता
चलता हैकि
औरंगज़ैब कभी यह सहननहीं करता था कि उसकी प्रजा के अधिकार किसी प्रकारसे भी छीने जाएँ, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान। वह अपराधियों के साथ सख़्ती से पेश आता था। इन फरमानों में एक जंगम लोंगों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) की ओरसे एक मुसलमाननागरिक के दरबारमें लाया गया, जिस पर शाही हुक्म दिया गया कि बनारस सूबा इलाहाबाद के अफ़सरों को सूचित किया जाता है कि पुराना बनारस के नागरिकों अर्जुनमल औरजंगमियों ने शिकायत की है कि बनारस के एक नागरिक नज़ीर बेग ने क़स्बा बनारस में उनकी
पांच हवेलियों पर क़ब्जा करलिया है। उन्हेंहुक्म दिया जाता है कि यदि शिकायत सच्ची पाई जाएऔर जायदा की मिल्कियत का अधिकार प्रमानिण हो जाए तो नज़ीर बेग को उन हवेलियों में दाखि़ल नहोने दया जाए, ताकि जंगमियों को भविष्य में अपनी शिकायत दूर करवाने के लिएएहमारे दरबार में ने आना पडे। इस
फ़रमान पर 11 शाबान, 13 जुलूस (1672 ई.) की तारीख़ दर्ज है। इसी मठ के पास
मौजूद एक-दूसरे फ़रमानमें जिस पर पहली नबीउल-अव्वल 1078 हि. की तारीख दर्ज़ है, यह उल्लेख है कि ज़मीन का क़ब्ज़ा जंगमियों को दया गया। फ़रमान में है- ‘‘परगना हवेली बनारस के सभी वर्तमानऔर भावी जागीरदारों एवं करोडियों को सूचित किया जाता हैकि शहंशाहके हुक्म से 178 बीघा ज़मीन जंगमियों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) को दी गई। पुराने अफसरों ने इसकी
पुष्टि की थी और उस समय के परगना के मालिक की मुहर के साथ यह सबूत पेश किया है कि ज़मीन परउन्हीं का हक़ है। अतःशहंशाह की जान के सदक़े के रूप में यह ज़मीन उन्हें देदी गई। ख़रीफ की फसल के प्रारम्भ से ज़मीन पर उनका क़ब्ज़ा बहाल किया जाय और फिर किसीप्रकार की दखलंदाज़ी नहोने दी जाए, ताकि जंगमी लोग(शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) उसकी आमदनी से अपने देख-रेख कर सकें।’’ इस फ़रमानसे केवल यही ता नहीं चलता कि औरंगज़ेब स्वभाव से न्यायप्रिय था, बल्कि यह भी साफ़ नज़र आता है कि वह इस तरह की जायदादों के बंटवारे में हिन्दू धार्मिक सेवकों के साथ कोई भेदभाव नहीं बरता था। जंगमियों को 178बीघा ज़मीन संभवतः स्वयं औरंगज़ेब ही ने प्रदानकी थी, क्योंकि एक दूसरे फ़रमान(तिथि 5 रमज़ान, 1071 हि.) में इसका स्पष्टीकरण किया गया हैकि यह ज़मीन मालगुज़ारी मुक्त है।
औरंगज़ेब ने एक दूसरे फरमान(1098 हि.) के द्वारा एक-दूसरी हिन्दू धार्मिक संस्था को भी जागीर प्रदान की। फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘बनारस में गंगा नदी के किनारे बेनी-माधो घाट पर दो प्लाट खाली हैं एक मर्क़जी मस्जिद के किनारे रामजीवन गोसाईं के घरके सामने औरदूसरा उससे पहले। ये प्लाट बैतुल-माल की मिल्कियत
है। हमने यह प्लाट रामजीवन गोसाईं और उनके लड़के को ‘इनाम’ के रूप में प्रदानकिया, ताकि उक्त प्लाटों परबाहम्णें एवं फ़क़ीरों के लिए रिहायशी मकान बनाने के बाद वे खुदा की इबादत और हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए दूआ और प्रार्थना कने में लग जाएं। हमारे बेटों, वज़ीरों,
अमीरों, उच्च पदाधिकारियों, दरोग़ा और वर्तमान एवं भावी कोतवालों के अनिवार्य है कि वे इस आदेश के पालनका ध्यानरखें और उक्त प्लाट, उपर्युक्त व्यक्ति और उसके वारिसों के क़ब्ज़े ही मे रहने दें और उनसे न कोई मालगुज़ारी या टैक्स लिया जसए औरन उनसे हर साल नई सनद मांगी जाए।’’ लगता है औरंगज़ेब को अपनी प्रजा की धार्मिक भावनाओं के सम्मानका बहुत अधिक ध्यान रहता था।
हमारे पास औरंगज़ेब का एक फ़रमान(2 सफ़र, 9 जुलूस) है जो असम के शह गोहाटी के उमानन्द मन्दिर के पुजारी सुदामन ब्राहम्ण के नाम है। असम के हिन्दू राजाओं की ओर से इस मन्दिरऔर उसके पुजारी को ज़मीन का एक टुकड़ा और कुछ जंगलों की आमदनी जागीर के रूप में दी गई थी, ताकि भोग का खर्च पूरा किया जा सके और पुजारी की आजीविका चल सके। जब
यह प्रांत औरंगजेब के शासन-क्षेत्र में आया, तो उसने तुरंत ही एक फरमानके
द्वारा इस जागीरको यथावत रखने का आदेश दिया। हिन्दुओं और उनके धर्म के साथ औरंगज़ेब की सहिष्ण्ता और उदारता का एक और सबूत उज्जैनके महाकालेश्वर मन्दिर के पुजारियों से मिलता है। यहशिवजी के प्रमुख मन्दिरों में से एक है, जहां दिन-रात दीप प्रज्वलित रहता है। इसके लिए काफ़ी दिनों से पतिदिन चार सेर घी वहां की सरकार की ओरसे उपलब्ध कराया जाथा था और पुजारी कहते हैंकि यह सिलसिला मुगल काल में भी जारी रहा। औरंगजेब ने भी इस परम्परा का सम्मानकिया। इस सिलसिले में पुजारियों के पास दुर्भाग्य से कोई फ़रमान तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु एक आदेश की नक़ल ज़रूरहै जो औरंगज़ब के काल में शहज़ादा मुराद बख़्श की तरफ से जारी किया गया था। 5 शव्वाल 1061 हि. को यह आदेश शहंशाहकी ओर से शहज़ादा ने मन्दिरके पुजारी देव नारायण के एक आवेदन पर जारी किया था। वास्तविकता की पुष्टि के बाद इस आदेश में कहा गया हैंकि मन्दिर के दीप के लिए चबूतरा कोतवाल के तहसीलदार चार सेर अकबरी घी प्रतिदिन
के हिसाब से उपल्ब्ध कराएँ। इसकी नक़ल मूलआदेश के जारी होने के 93 साल बाद (1153 हिजरी) में मुहम्मद सअदुल्लाहने पुनः जारी की। साधारण्तः इतिहासकार इसका बहुत उल्लेख करते हैं कि अहमदाबाद में नागर सेठ के बनवाए हुए चिन्तामणि मन्दिर को ध्वस्त किया गया, परन्तु इस वास्तविकता पर पर्दा डाल देते हैं कि उसी औरंगज़ेब ने उसी नागर सेठ के बनवाए हुए शत्रुन्जया और आबू मन्दिरों को काफ़ी बड़ी जागीरें प्रदानकीं।
मन्दिर तोड़ने की घट्ना
निःसंदेह इतिहास से यहप्रमाण्ति होता हैंकि औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मन्दिर और गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद को ढा देने का आदेश दिया था, परन्तु इसका कारण कुछ और ही था। विश्वनाथ मन्दिर के सिलसिले में घटनाक्रम यह बयान किया जाता है कि जब औरंगज़ेब बंगालजाते हुए बनारस के पास से गुज़र
रहा था, तो उसके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने बादशाह से निवेदन किया
कि वहा। क़ाफ़िला एक दिन ठहर जाएतो उनकी रानियां बनारस जा कर गंगा दनी में स्नानकर लेंगी और विश्वनाथ जी के मन्दिर में श्रद्धा सुमन भी अर्पित कर आएँगी। औरंगज़ेब ने तुरंत ही यह निवेदनस्वीकार कर लिया और क़ाफिले के पडाव से बनारस तक पांच मील के रास्ते पर फ़ौजी पहरा बैठा दिया। रानियां पालकियों में सवार होकर गईं और स्नान एवं पूजा के बाद वापस आ गईं, परन्तु एक रानी (कच्छ की महारानी) वापस नहीं आई, तो उनकी बडी तलाश हुई, लेकिनपता नहीं चल सका। जब औरंगजै़ब को मालूम हुआ तो उसे बहुत गुस्सा आया और उसने अपने फ़ौज के बड़े-बड़े अफ़सरों को तलाश के लिए भेजा। आखिरमें उनअफ़सरों ने देखा कि गणेश की मूर्ति जो दीवार में जड़ी हुई है, हिलती है। उन्होंने मूर्ति हटवा कर देख तो तहखाने की सीढी मिली और गुमशुदा रानी उसी में पड़ी रो रही थी। उसकी इज़्ज़त भी लूटी गई थी और उसके आभूषण भी छीनलिए गए थे। यह तहखाना विश्वनाथ जी की मूर्ति के ठीक नीचे था। राजाओं ने इस हरकत पर अपनी नाराज़गी जताई और विरोघ प्रकट किया। चूंकि यह बहुत घिनौना अपराध था, इसलिए उन्होंने कड़ी से कड़ी कार्रवाई कने की मांग की। उनकी मांग पर औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि चूंकि पवित्र-स्थल को अपवित्र किया जा चुका है। अतः विश्नाथ जी की मूर्ति को कहीं और लेजा कर स्थापित कर दिया जाए और मन्दिर को गिरा कर
ज़मीन को बराबर कर दिया जाए और महंत को गिरफ्तार कर लिया जाए। डाक्टर पट्ठाभि सीता रमैया ने अपनी प्रसिद्धपुस्तक ‘द फ़ेदर्स एण्ड द स्टोन्स’ मे
इस घटना को दस्तावेजों के आधार पर प्रमाणित किया है। पटना म्यूज़ियम के पूर्व क्यूरेटर डा. पी. एल. गुप्ता ने भी इस घटना की पुस्टि की है।
मस्जिद तोड़ने की घटना
गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद की घटना यह है कि वहां के राजा जो तानाशाहके नाम से प्रसिद्धथे, रियासत की मालगुज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली का हिस्सा नहीं भेजते थे। कुछ ही वर्षों में यहरक़म करोड़ों की हो गई। तानाशाह नयहख़ज़ाना एक जगह ज़मीनमें गाड़ कर उस पर मस्जिद बनवा दी। जब औरंज़ेब को इसका पता चला तो उसने आदेश देदिया कि यह मस्जिद गिरा दी जाए। अतःगड़ा हुआ खज़ाना निकाल कर उसे जन-कल्याण के कामों मकें ख़र्च किया गया।
ये दोनों मिसालें यह साबित करने के लिए काफ़ी हैंकि औरंगज़ेब न्याय के मामले में मन्दिर औरमस्जिद में कोई फ़र्क़ नहीं समझता था। ‘‘दर्भाग्य से मध्यकाल और आधुनिक काल के भारतीय इतिहास की घटनाओं एवं चरित्रों को इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर मनगढंत अंदाज़ में पेश किया जाता रहा हैकि झूठ ही ईश्वरीय आदेश की सच्चाई की तरहस्वीकार किया जाने लगा, और उन लोगों को दोषी
ठहराया जाने लगा जो तथ्य और मनगढंत बातों में अन्तर करते हैं। आज भी साम्प्रदायिक एवं स्वार्थी तत्व इतिहास क तोड़ने- मरोड़ने और उसे ग़लत रंग देने में लगे हुए हैं।

साभार पुस्तक ‘‘इतिहास के साथ यह अन्याय‘‘ प्रो. बी. एन पाण्डेय,

http://islaminhindi.blogspot.in/2009/07/aurangzeb.html

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