Thursday 14 May 2015

भारत में चुनाव और भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व

धर्मनिरपेक्षता के नारे के माध्यम से दुनिया को धोखा देने वाले भारत का असली चेहरा
चुनावी दंगल में मुसलमानों को प्रतिनिधित्व से वंचित रखने की साजिश
लोकसभा चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या बेहद सीमित
भारत की किसी भी राजनीतिक दल को भारतीय संसद और विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व मंजूर नहीं!
भारतीय खुफिया एजेंसी "रॉ" के निर्देश पर पिछले बीस वर्षों से भारत की सभी धर्मनिरपेक्ष दल एक गैर लिखित संविधान का पालन कर रही हैं
भारतीय राजनीतिक दलों की कोशिश है कि मुसलमानों को संसद में प्रतिनिधित्व से दूर रखा जाए ताकि मुस्लिम मुद्दों पर कोई आवाज नहीं उठाई जा सके।
पिछले दो दशकों के दौरान भारत में होने वाले हर चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या को कम करके अमूर्त शैली में भारतीय मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित किया जा रहा है
एक लेख उनके लिए जो यह सोचते हैं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां अल्पसंख्यकों और विशेषकर मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव व्यवहार नहीं किया जाता और भारत में मुसलमान चेन और आराम कर रहे हैं
भारत में चुनाव का जोर शोर है और चुनावी गहमागहमी इतना चरम पर पहुंच चुकी है कि कोई राजनीतिक दल मुसलमानों को देशद्रोही करार देकर हिंदू वोटों के अधिग्रहण के लिए मुसलमानों के गले काटने की घोषणा कर रही है तो कोई मुसलमानों से हमदर्दी जता कर इन के वोट हासिल करने की कोशिश में जुटी है। विभिन्न राजनीतिक दल मतदाताओं को विभिन्न तरीकों 'नारों' वादों और दावों से रिझाने की कोशिश कर रही हैं। मुस्लिम दुश्मनी के हवाले से प्रसिद्धि पाने और भारत में मुसलमानों पर समय हयात तंग कर देने के बारे में जाने-माने शिवसेना, भाजपा और उसी जनजाति अन्य राजनीतिक दलों को छोड़कर बाकी राजनीतिक दल अपने धर्मनिरपेक्ष होने का जो जोर-शोर से ढिंढोरा पीट रही हैं उससे पता चलता है कि भारत में धर्म और पंथ कोई महत्व नहीं रखता जबकि यह भी एक तथ्य है कि भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने के लिए सरकारी संरक्षण में अल्पसंख्यकों के साथ जो अत्याचार किए गए और आज भी हिंदू कट्टरपंथियों मुसलमानों का नरसंहार करने के साथ साथ सरकारी स्तर पर उनका जिस तरह से शोषण किया जा रहा है वह किसी से भी छिपा नहीं है। जनता दल (ए टू जेड) से लेकर कांग्रेस तक 'विपक्ष से विपक्षी सत्ता तक हर भारतीय दल सेक्युलर होने का दावेदार है और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल मुसलमानों को बार बार चेतावनी दे रही हैं, डरा रही हैं डर दिखला रही हैं कि वे एकजुट होकर उन्हीं को वोट दें। और हर धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली राजनीतिक दल अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाया रही हैं जबकि जवाबी आरोपों का सिलसिला भी जा रही है जिसकी वजह से भारत का आम मुसलमान प्रयास ोपनज का शिकार है कि वह राजनीतिक जंगल में किधर जाए। कल तक मुसलमानों के खून की प्यासी भारत की सारी राजनीतिक दल अचानक मुसलमानों का दम भरने लगी हैं। उनकी समस्याओं गुना रही हैं। उन पर किए गए कागजी अहसानात की याद दिला रही हैं। मुसलमानों की भलाई के विकास के कल्याण की बातें कहीं जा रही हैं। लेकिन कोई राजनीतिक पार्टी और विशेषकर कोई धर्मनिरपेक्ष दल यह बताने के लिए तैयार नहीं कि वे कितने मुसलमानों को संसद में प्रतिनिधि बनाकर भेज रही है। सारी सेकुलर पार्टियां एक गैर लिखित संविधान का पालन कर रहे हैं कि मुसलमानों की संसद और विधानसभा में प्रतिनिधित्व कम से कम किया जाए। ताकि मुसलमानों को दिल खुश वादों द्वारा आगामी वर्षों तक विश्राम किया और उनके वोटों पर शासन किया। भारतीय खुफिया एजेंसी "रॉ" के निर्देश पर पिछले बीस वर्षों से भारत की सभी धर्मनिरपेक्ष दल एक गैर लिखित संविधान का पालन कर रही हैं जिसकी वजह से भारतीय संसद और विधानसभाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व तेजी से कम होती जा रही है।
यह बात किसी से ढकी छुपी नहीं है कि भारत के मुसलमानों ने वोट देने से पहले कभी इस पहलू पर सोचना भी गवारह नहीं किया कि वह जो धर्मनिरपेक्ष पार्टी के उम्मीदवार को वोट दे रहा है वह हिंदू है या मुसलमान। मुसलमानों ने उम्मीदवार कभी सांप्रदायिक तौर पर नहीं देखा। वह केवल धर्मनिरपेक्षता के झांसे में आकर संसद और विधानसभा में प्रतिनिधित्व कम करता चला आ रहा है। क्या यह बात भारत धर्मनिरपेक्षता के पाखंडी और ढोंग होने का सबूत नहीं कि भारत की किसी भी राष्ट्रीय क्षेत्रीय धर्मनिरपेक्ष पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवार को हिंदू वोट नहीं मिलते, जबकि मुसलमान इस रुख पर सोचने की कल्पना भी नहीं करते। सितम की बात यह है कि मुस्लिम वोट से सत्ता आने वाली राजनीतिक दल ही भारतीय मुसलमानों की वफादारी पर शक की अभिव्यक्ति के साथ साथ उनका शोषण करती हैं और आतंकवादी भक्त हिंदू संगठनों को मुसलमानों के नरसंहार की छूट देकर मुसलमानों की नरसंहार में अपना गीरमरई भूमिका भी अदा करती हैं जबकि शोषण का शिकार मुसलमानों पर ही यह आरोप भी लगाया जाता है कि वह वफादार नहीं होते हैं और सांप्रदायिकता को पसंद करते हैं अगर वास्तव में भारतीय मुसलमान भारत से वफादार नहीं होते या सांप्रदायिकता को पसंद करते तो भारतीय संसद और विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या निश्चित रूप से उनकी जनसंख्या के अनुपात में होती या फिर हर एक भारतीय राजनीतिक दलों को मुस्लिम वोट पाने के लिए मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देना पड़ता मगर ऐसा नहीं है ।
गौरतलब है कि भारत का एक बुद्धिजीवी वर्ग इसीलिए राजनीति में मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा है कि इस तरह संसद और विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व हो सके। लेकिन धर्मनिरपेक्षता के तमाम दावों के बावजूद कांग्रेस, राष्ट्र घाटी कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां मुसलमानों को राजनीतिक आरक्षण दिए जाने की मांग पर अंधी, बहरी, गूंगा हो जाती हैं। लगभग सभी राजनीतिक धर्मनिरपेक्ष दलों को मुसलमानों के वोट चाहिए मगर कोई भी मुसलमानों को प्रतिनिधित्व का अधिकार देने के लिए तैयार नहीं!
पाठकों को यह जानकर दुःख और आश्चर्य भी होगा कि भारत की 41 वीं लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या अत्यधिक अल्प है। यानी केवल 35 सांसदों मुसलमान हैं। जब कि भारत मेंमसलमानों की आबादी के आधार पर संसद में 70 मुस्लिम सदस्य संसद होने चाहिए।
सवाल यह है कि आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है। क्या इसके जिम्मेदार मुसलमान नहीं? क्या इसके लिए वह राजनीतिक दल जिम्मेदार नहीं जो मुसलमानों से हमदर्दी का दावा है और जो मुस्लिम हितों के नगराँ होने का दावा करते हैं। मुसलमानों ने इस देश में कभी अपना महत्व को स्वीकार नहीं किया। उन्हें अपनी स्थिति बदलने का विचार ही नहीं आता। अगर कभी भूले भटके ऐसा विचार आ भी जाए तो तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व के मुंह पर इस डर से ताले लग जाते हैं कि अगर ऐसी कोई बात कह दी जाए तो उन पर सांप्रदायिकता का आरोप लग जाएगा। सांप्रदायिकता का विरोध तो सब करते हैं लेकिन इसी सांप्रदायिकता पर सभी धर्मनिरपेक्ष दल गहरा प्रक्रिया भी करती हैं। अगर हमारी बात झूठ है, आरोप है बदनामी है तो कोई हमें बताए कि भारतीय संसद में भारत के विभिन्न राज्यों की विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व तेजी से क्यों घट रही है। कारण स्पष्ट है कि भारत को हिंदू राष्ट्र में बदलने के प्रयासों में लगे भारतीय खुफिया एजेंसी अपने प्रयासों में इस हद तक तो सफल हो चुकी है कि वह भारत के हर हिन्दू की हद तक मन लेने जरूर दी है कि आज भारत का हर हिंदू चाहे वह जीवन के किसी भी क्षेत्र के अंतर्गत आता है भारत से अल्पसंख्यकों का अस्तित्व मिटा देने का इच्छुक है और यही इच्छा चुनाव के मौके पर इस समय खुलकर सामने आ जाती है जब भारत की हर राजनीतिक दल मुस्लिम सहानुभूति का दम भर कर खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने की कोशिश तो जरूर करती है और मुसलमानों के वोट से सत्ता में आने के इच्छुक भी है लेकिन मुसलमानों का प्रतिनिधित्व प्रभावी बनाने के लिए मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देना किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए स्वीकार्य नहीं है।
क्या यह विडंबना नहीं है कि खुद को भारत का सबसे पुराना और सबसे धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली पार्टी ने महाराष्ट्र में केवल एक मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान चुनाव में उतारा है। जबकि महाराष्ट्र में मुसलमानों की आबादी के हिसाब से 3 मुस्लिम सांसदों का चयन कर सकते हैं। हम डेटा की रोशनी में बतलाया कि महाराष्ट्र की कुल आबादी 10 करोड़ 39 लाख 28 हजार 945 है। उनमें मुसलमानों की संख्या 1,08,36,832 है यानी एक करोड़ से अधिक और एक करोड़ मुस्लिम आबादी वाले महाराष्ट्र से केवल एक मुस्लिम सांसद चयन हुआ है। जो अब्दुर्रहमान अंतुले हैं। जनसंख्या की दृष्टि से मुस्लिम महाराष्ट्र में 10 ाशारी 45 प्रतिशत हैं और प्रतिशत के लिहाज से संसद में महाराष्ट्र के 5 मुस्लिम सांसदों होने चाहिए लेकिन केवल एक सांसद है, यह महाराष्ट्र के मुसलमानों के साथ अन्याय नहीं है आंध्र प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 48 लाख 21 हजार 51 है । कुल आबादी का यह 10 ाशारया 83 प्रतिशत हिस्सा है। इस दृष्टि से आंध्र प्रदेश से 4 मुस्लिम सांसदों का चयन होने चाहिए लेकिन केवल 2 मुसलमान आंध्र के मुसलमानों की संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत की 6 राज्य हैं जहां कम से कम एक और अधिकतम 2 मुस्लिम सांसदों का चयन होने चाहिए लेकिन इन 6 राज्यों से कोई मुस्लिम संसद का सदस्य नहीं है।
महाराष्ट्र में संसद की 84 सीटें हैं, यानी महाराष्ट्र से 84 सांसदों का चयन होते हैं। इन में केवल एक मुस्लिम है। जबकि जनसंख्या के हिसाब से पांच मुस्लिम सांसदों होने चाहिए। महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी का कोई अस्तित्व नहीं है। बसपा का प्रतिनिधित्व शून्य है। जनता दल स्वर्गीय हो चुकी है, राजद काई अता-पता नहीं है। ले दे दो पार्टियां हैं और दोनों को भी धर्मनिरपेक्षता पर ईमानदारी से क्रियान्वयन का दावा इनमें एक कांग्रेस है तो दूसरी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी है। महाराष्ट्र के एक करोड़ 8 लाख 23 हजार 238 मुसलमानों से दोनों कांग्रेस पार्टियां वोट मांग रही है कि इन दोनों राजनीतिक दलों ने महाराष्ट्र की 84 संसदीय सीटों को आपसी तौर पर 22-62 के आधार पर विभाजित कर लिया है। राष्ट्र घाटी कांग्रेस पार्टी को 22 संसदीय क्षेत्रों में कोई मुस्लिम नेता नहीं मिला जिसे वह संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के लिए रवाना करवाया। हालांकि शरद पवार के लिए यह नाममकनात से नहीं कि वह अपने कोने की 22 संसदीय सीटों पर से एक सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार को सफल बनाएं। शरद पवार राजनीति में पुरुष अहंकार करार दिए जाते हैं। महाराष्ट्र के एक बड़े क्षेत्र में उनका तूती बोलती है। उनके संसदीय निर्वाचन क्षेत्र बारह मैथ्यू में अगर किसी मुसलमान को शरद पवार उम्मीदवार बनाते तो बारह मैथ्यू के मतदाताओं फिर स्थिति शरद पवार के संदर्भ मुस्लिम उम्मीदवार को भारी बहुमत से विजयी करवाया। लेकिन शरद पवार को मुसलमानों से सूरत सहानुभूति होने की वजह से उन्होंने बारह मैथ्यू सेट अपनी दखतर के लिए छोड़ दिया और खुद नए संसदीय क्षेत्र माडखा से किस्मत आजमाई कर रहे हैं। क्या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में कोई ऐसा कद्दावर मुस्लिम नेता नहीं है जो पार्टी का टिकट हासिल कर सके। बाल्फ़रज़ ऐसा कोई नेता एनसीपी में नहीं था तो शरद पवार अपने संगी ऑल इंडिया मुस्लिम ओबीसी संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष शब्बीर अहमद अंसारी को ही बारह मैथ्यू से उम्मीदवार बनाते और शरद पवार चाहते तो शब्बीर अंसारी रिकॉर्ड बहुमत से संसद के लिए निर्वाचित होते। इसके बावजूद शरद पवार ने किसी मुस्लिम उम्मीदवार को चुनाव मैदान में उतारना पसंद नहीं किया। तो क्या इससे एनसीपी और शरद पवार के धर्मनिरपेक्ष होने के ढोंग का पर्दाफाश नहीं होता। यही स्थिति कांग्रेस के संबंध में कही जा सकती है कि कांग्रेस तो धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा दावेदार है। मुसलमानों से अपनी सहानुभूति की बातें किसी से ढकी छुपी नहीं हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर आठ आठ आंसू बहाने वाली कांग्रेस को दावा है कि वह देश की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है जो मुसलमानों के हितों की नगराँ है और उनकी भलाई चाहती है। मुसलमानों व्यक्त ीगाँगत का कोई मौका कांग्रेस हाथ से जाने नहीं देती। हालांकि संसद और विधानसभा में मुसलमानों की उपस्थिति कांग्रेस को भी पसंद नहीं है। वह नहीं चाहती कि मुसलमान संसद और विधानसभा में पहुंचीं। हम सभी भारत की बात नहीं करेंगे केवल महाराष्ट्र की बात करेंगे। जैसा कि कहा जा चुका है कि मुसलमान महाराष्ट्र की कुल आबादी का 10.53 प्रतिशत है और इस आधार पर महाराष्ट्र से 5 मुस्लिम सांसदों किसी भी मामले में चुने जाने चाहिए। कांग्रेस, एनसीपी ने महाराष्ट्र की 84 सीटों के लिए गठबंधन किया है। कांग्रेस के हिस्से में 62 सीटें आई हैं। सवाल यह है कि क्या इन 62 सीटों में से कांग्रेस 3 सीटें मुसलमानों के लिए आवंटित नहीं कर सकती थीं। बिल्कुल सकती थी क्योंकि कांग्रेस राज्य के एक करोड़ से अधिक मुसलमानों की अनदेखी नहीं कर सकती। लेकिन 62 सीटों के उम्मीदवारों पर एक नज़र डाली जाए तो पता चलेगा कि कांग्रेस ने मुसलमानों को अनदेखा किया और बुरी तरह उपेक्षित किया। कांग्रेस ने शर्डी संसदीय क्षेत्र रामदास आठोले के लिए छोड़ दिया। क्या कांग्रेस ऐसे ही महाराष्ट्र के तीन संसदीय क्षेत्र मुसलमानों के लिए नहीं छोड़ सकती थी। ऐसे क्षेत्रों की खोज कांग्रेस के लिए मुश्किल भी न थी। नासिक, मुंबई का कोई एक क्षेत्र और औरंगाबाद से कांग्रेस मुस्लिम उम्मीदवार को पूरी ताकत से सफल करवासकती थी। लेकिन सूची में केवल एकमात्र नाम अब्दुर्रहमान अंतुले का है। इस विस्तृत समीक्षा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कांग्रेस हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस या धर्मनिरपेक्षता का दम भरने वाली कोई और भारतीय राजनीतिक दल उन्हें भारतीय संसद ाोरासम्बली में मुसलमान और उनका प्रतिनिधित्व मंजूर नहीं लेकिन उन्हें मुस्लिम वोट जरूर आवश्यक हैं 'वे यह नहीं चाहते हैं मुसलमानों के प्रतिनिधि संसद के सदनों में पहुंचीं और मुस्लिम मुद्दों पर आवाज लें। दोनों दल खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलाती हैं और जब धर्मनिरपेक्षता के प्रदर्शन का समय आता है तब उन्हें डराया जाता है धमकाया जाता है, भय दिया जाता है, सांप्रदायिक दलों से सांप्रदायिक नेताओं से। कांग्रेस का चयन नहीं किया गया तो "गुजरात" बनेंगे। आभरंगठर अनुच्छेद भावनात्मक दृष्टिकोण से नहीं बल्कि निष्पक्ष तरीके से उनके लिए कलम बंद कर दिया गया है जो यह सोचते हैं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां अल्पसंख्यकों और विशेषकर मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव व्यवहार नहीं किया जा रहा है।

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