मंगल पर कदम रखने वाले देश में अभी तक सांप्रदायिक दंगे जारी हैं, यह दंगे एक मरहले के बाद होते रहे हैं, कल गुजरात के भरूच में मामूली कहा सुनी की वजह से सांप्रदायिक दंगा भड़क गया जिसकी वजह से दो लोगों की मौत हो गई, क्या अब कहोगे मरने वाले के लिये रेस्ट एंड पीस (RIP) या फिर पुरानी घटनाओं की तरह इस पर दो दिन आंसू बहाकर अपनी संवेदना की प्यास को शांत कर लिया जायेगा। दंगे तो आजादी के वक्त से ही होते रहे हैं, यह तो इस राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक समस्या है, फिर बीते 67 सालों में इस समस्या का उपाय क्यों नहीं तलाश गया ? क्या इसलिये कि दंगों पर राजनीति करने का ‘मजा’ ही अलग होता है, किस काम की यह राजनीति जो आम आदमी के नाम पर होती है और उसे ही सांप्रदायिक दंगों में झोंक देती है ? क्या करोगे इस भौंडी राजनीति का जनता के भी कुछ सरोकार हैं उन्हें भी पूरा कर लीजिये ? सांप्रदायकिता की राजनीति पर कमसे 21 वीं सदी में तो विराम लग जाना चाहिये ? या अब भी वही रूढ़ीवादी, वही मंदिर मस्जिद, वही ताजिये और शोभा यात्रा तुम्हारे लिये जरूरी हैं जिनके सहारे दंगे आसानी से कराये जा सकें, जो पीड़ित वर्ग है वह उसके साथ हो जाये जो ‘सैक्यूलर’ होने का दावा करते हैं और जो अत्याचारी वर्ग है वह उसकी शरण में आ जाये जो उसका ‘रक्षक’ होने का दावा करता हो। मगर सोचिये तो इससे आम आदमी को क्या मिलेगा ? क्या मुजफ्फरनगर भूल गये जहां इसी प्रयोगशाला ने उन लोगों को सलाखों को पीछे पहुंचा दिया जो सुब्ह शाम गांव के रास्तों पर दौड़ लगाये करते थे ताकि वे पुलिस या फोर्स में जा सकें, मगर इस सांप्रदायिक होते माहौल, और इस सांप्रदायिक राजनीति ने उन्हें कहां पहुंचा दिया ? यह उनके मां बाप से भी मालूम कर लीजिये... ... कहने को बहुत है अगर सोचा जाये, अमल किया जाये,
@Wasim Akram Tyagi की कलम से
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